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बाईसवाँ क्रियापद ]
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निरूपण किया गया है । इसीलिए प्राणातिपात आदि के अध्यवसाय से सात या आठ कर्मों के बन्ध का उल्लेख किया गया है।
फिर जीव के ज्ञानावरणीयादि कर्मबन्ध करते समय कितनी क्रियाएँ होती हैं ? इसका विचार प्रस्तुत किया गया है। यहाँ १८ पापस्थान की क्रियाओं को ध्यान में न लेकर सिर्फ पूर्वोक्त ५ क्रियाएँ ही ध्यान में रखी हैं। परन्तु वृत्तिकार ने स्पष्टीकरण किया है कि इन प्रश्नों का आशय यह है कि जीव जब प्राणातिपात द्वारा कर्म बाँधता हो, तब उस प्राणातिपात की समाप्ति कितनी क्रियाओं से होती है। वृत्तिकार यह भी स्पष्ट किया है कि कायिकी आदि क्रम से तीन, चार या पांच क्रियाएँ समझनी चाहिए । तत्पश्चात् एक जीव, एक या अनेक जीवों की अपेक्षा से तथा अनेक जीव, एक या अनेक जीवों की अपेक्षा से कायिकी आदि क्रियाओं में से कितनी क्रियाओं वाला होता है ? दूसरे जीव की अपेक्षा से कायिकी आदि क्रियाएँ कैसे लग जाती हैं, इसका स्पष्टीकरण वृत्तिकार यों करते हैं कि केवल वर्तमान जन्म में होने वाली कायिकी आदि क्रियाएँ यहाँ अभिप्रेत नहीं हैं, किन्तु अतीत जन्म के शरीररादि से अन्य जीवों द्वारा होने वाली क्रिया भी यहाँ विवक्षित है, क्योंकि जिस जीव ने भूतकालीन काया आदि की विरति नहीं स्वीकारी, अथवा शरीरादि का प्रत्याख्यान ( व्युत्सर्ग या ममत्वत्याग) नहीं किया, उस शरीरादि से जो कुछ निर्माण होगा या उसके द्वारा अन्य जीव जो कुछ क्रिया करेंगे, उसके लिए वह जिम्मेवार होगा, क्योंकि उसने शरीरादि का ममत्व त्याग नहीं किया।
+ इसके बाद चौबीसदण्डकवर्ती जीवों में पांचों क्रियाओं की प्राप्ति बताई है।
इसके बाद पश्चात् २४ दण्डकों में कायिकी आदि पांचों क्रियाओं के सहभाव की चर्चा की गई है। साथ ही कायिकी आदि पांचों क्रियाओं को आयोजिका (संसारचक्र में जोड़ने वाली) के रूप में बताकर इनके सहभाव की चर्चा की गई है।
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+ इसके पश्चात् एक जीव में एक जीव की अपेक्षा से पांचों क्रियाओं में से स्पृष्ट- अस्पृष्ट रहने की चर्चा की गई है।
इसके अनन्तर क्रियाओं के प्रकारान्तर से आरम्भिकी आदि ५ भेंद बताकर किस जीव में कौन-सी क्रिया पाई जाती है ? इसका उल्लेख किया है। इसके पश्चात् चौबीसदण्डकों में इन्हीं क्रियाओ की प्ररूपणा की गई है। फिर जीवों में इन्हीं पांच क्रियाओं के सहभाव की चर्चा की गई है। अन्त में समय, देशप्रदेश को लेकर भी इनके सहभाव की चर्चा की गई हैं।
१. पण्णवणासुत्तं मूलपाठटिप्पण, पृ. ३५१-३५२
२.
वही, पृ. ३५३ - ३५४
३.
वही, पृ. ३५५ - ३५६
४.
वही, पृ. ३५६- ३५७
वही, पृ. ३५७, ३५८, ३५९
५.