SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 467
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४४६ ] [प्रज्ञापनासूत्र इसी प्रकार आभियोगिक साधकों का उपपात भी जान लेना चाहिए । स्वलिंग (समान वेष वाले) साधुओं का तथा दर्शन-व्यापन्न व्यक्तियों का उपपात जघन्य भवनवासीदेवों में और उत्कृष्ट उपरिम-ग्रैवेयकदेवों में होता विवेचन - मर कर देवलोकों में उत्पन्न होने वालों की चर्चा - प्रस्तुत सूत्र (१४७०) में भविष्य में देवगति में जाने वाले विविध साधकों के विषय में चर्चा की गई है कि वे मरकर कहाँ, किन देवों में उत्पन्न हो सकते हैं ? वस्तुतः इस चर्चा-विचारणा का परम्परा से अन्तक्रिया से सम्बन्ध है । विशिष्ट पारिभाषिक शब्दों के विशेषार्थ - असंयत भव्यद्रव्यदेव : दो अर्थ - (१) चारित्र के परिणामों से शून्य (भव्य देवत्वयोग्य अथवा मिथ्यादृष्टि अभव्य या भव्य श्रमणगुणधारक अखिल समाचारी के अनष्ठान से यक्त द्रव्यलिंगधारी (मलयगिरि के मत से) तथा (२) अन्य अचार्यों के मतानसार-देवों में उत्पन्न होने योग्य असंयतसम्यग्दृष्टि जीव । अविराधितसंयम-प्रव्रज्याकाल से लेकर जिनके चारित्रपरिणाम अखण्डित रहे हैं, किन्तु संज्वलन कषाय के सामर्थ्य से अथवा प्रमत्तगुणस्थानकवश स्वल्प मायादि दोष की सम्भावना होने पर जिन्होंने सर्वथा आचार का उपघात नहीं किया है, वे अविराधितसंयम हैं । विराधितसंयमजिन्होंने संयम को सर्वात्मना खण्डित-विराधित कर दिया है, प्रायश्चित्त लेकर भी पुनः खण्डित संयम को सांधा (जोड़ा) नहीं है, वे विराधितसंयम हैं । अविराधितसंयमासंयम-वे श्रावक, जिन्होंने देशविरतिसंयम को स्वीकार करने के समय से देशविरति के परिणामों को अखण्डित रखा है । विराधितसंयमासंयम-वे श्रावक, जिन्होंने देशविरतिसंयम को सर्वथा खण्डित कर दिया और संयमासंयम के खण्डन का प्रायश्चित्त लेकर पुनर्नवीकरण नहीं किया है ; वे । असंज्ञी-मनोलब्धि से रहित अकामनिर्जरा करने वाले साधक। तापस-बालतपस्वी, जो सूखे या वृक्ष से झड़े हुए पत्तों आदि का उपभेग करते हैं । कान्दार्पिक-व्यवहार से चरित्रपालन करने वाले, किन्तु जो कन्दर्प एवं कुत्सित चेष्टा करते हैं, हँसी-मजाक करते हैं, लोगो की अपनी वाणी और चेष्टा से हँसाते हैं । हाथ की सफाई, जादू आदि बाह्य चमत्कार बताकर लोगों को विस्मय में डाल देते हैं । चरक-परिव्राजक-कपिलमतानुयायी त्रिदण्डी, जो घाटी के साथ भिक्षाचर्या करते हैं अथवा चरककच्छोटक आदि साधक एवं परिव्राजक । किल्विषिक-व्यवहार से चारित्रवान् किन्तु जो ज्ञान, (दर्शन, चारित्र) केवली, धर्माचार्य एवं सर्वसाधुओं का अवर्णवाद करने का पाप करते हैं, अथवा इनके साथ माया (कपट) करते हैं । दूसरे के गुणों और अपने दोषों को जो छिपाते हैं, जो पर-छिद्रन्वेषी हैं, चोर की तरह सर्वत्र शंकाशील, गूढाचारी, असत्यभाषी, क्षणे रुष्टा क्षणे तुष्टा (तुनुकमिजाजी) एवं निह्नव हैं, वे किन्विषिक कहलाते हैं । तैरश्चिक-जो साधक गाय आदि पशुओं का पालन करके जीते हैं, या देशविरत हैं ।आजीविकजो अविवेकपूर्वक लाभ, पूजा, सम्मान, प्रसिद्धि, आदि के लिए चारित्र का पालन करते हुए आजीविका करते हैं, अथवा आजीविकमत (गोशालकमत) के अनुयायी पाखण्डि-विशेष । आभियोगिक-जो साधक अपने गौरव के लिए चूर्णयोग, विद्या, मंत्र आदि से दूसरों का वशीकरण, सम्मोहन, आकर्षण आदि (अभियोग) करते हैं । वे केवल व्यवहार से चारित्रपालन करते हैं, किन्तु मंत्रादिप्रयोग करते हैं । स्वलिंगी-दर्शनव्यापन्न
SR No.003457
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages545
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy