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[ प्रज्ञापनासूत्र ___(उ.) गौतम ! विष्कम्भ, अर्थात्-उदर आदि के विस्तार और बाहल्य, अर्थात्-छाती और पृष्ठ की मोटाई के अनुसार शरीरप्रमाणमात्र ही अवगाहना होती है । लम्बाई की अपेक्षा तैजसशरीर की अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग की होती है और उत्कृष्ट अवगाहना लोकान्त से लोकान्त तक होती है ।
१५४६. एगिंदियस्स णं भंते ! मारणंतियसमुग्घाएणं सनोहयस्स तेयासरीरस्स केमहालिया सरीरोगाहणा पण्णत्ता?
गोयमा ! एवं चेव, जाव पुढवि-आउ-तेउ-वाउ-वणस्सइकाइयस्स ।
[१५४६ प्र.] भगवन् ! मारणान्तिकसमुद्घात से समवहत एकेन्द्रिय के तैजसशरीर की अवगाहना कितनी कही गई है ?
[उ.] गौतम ! इसी प्रकार (समुच्चय जीव के समान मारणान्तिकसमुद्घात से समवहत एकेन्द्रिय के तैजसशरीर की अवगाहना भी) विष्कम्भ और बाहल्य की अपेक्षा से शरीरप्रमाण और लम्बाई की अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट अवगाहना ) पृथ्वी-अप्-तेजो-वायु-वनस्पतिकायिक तक पूर्ववत् समझनी चाहिए ।
१५४७.[१]वेइंदियस्स णं भंते ! मारणंतियसमुग्घाएणं समोहयस्स तेयासरीरस्स केमहालिया सरीरोगाहणा पण्णत्ता?
गोयमा ! सरीरपमाणमेता विक्खंभ-बाहल्लेणं ;आयामणं जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं, उक्कोसेणं तिरियलोगाओ लीगंतो । ___[१५४७-१] भगवन् ! मारणान्तिकसमुद्घात से समवहत द्वीन्द्रिय के तैजसशरीर की अवगाहना कितनी बड़ी कही गई है ? -
[उ.] गौतम ! विष्कम्भ अर्थात्-उदर आदि विस्तार एवं बाहल्य, अर्थात्-वक्षस्थल एवं पृष्ठ (पीठ) की मोटाई की अपेक्षा से शरीरप्रमाणमात्र होती है । तथा लम्बाई की अपेक्षा से जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग की और उत्कृष्ट तिर्यक् (मध्य) लोक से (ऊर्ध्वलोकान्त या अधो-) लोकान्त तक अवगाहना समझनी चाहिए।
[२] एवं जाव चउरि दियस्स ।
[१५४७-२] इसी प्रकार यावत् चतुरिन्द्रिय तक के (जीवों के तैजसशरीर की अवगाहना समझ लेनी चाहिए ।)
१५४८. णंरइयस्स णं भंते ! मारणंतियसमुग्घाएणं समोहयस्स तेयासरीरस्स केमहालिया सरीरोगाहणा पण्णत्ता?
गोयमा ! सरीरपमाणमेत्ता विक्खंभ-बाहल्लेणं ; आयामेणं सातिरेगं जोयणसहस्सं, उक्कोसेणं