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________________ अठारहवाँ कायस्थितिपद] [४०१ गोयमा ! सादीए अपज्जवसिए । दारं १७॥ [१३८५ प्र.] भगवन् ! नोपर्याप्त-नोअपर्याप्त जीव कितने काल तक नोपर्याप्त-नोअपर्याप्त-अवस्था में रहता है? [१३८५ उ.] गौतम ! (वह) सादि-अपर्यवसित है। सत्तरहवाँ द्वार ॥१७॥ विवेचन - सत्तरहवाँ पर्याप्तद्वार - प्रस्तुत तीन सूत्रों (सू. १३८३ से १३८५ तक) में पर्याप्त, अपर्याप्त और नोपर्याप्त-नोअपर्याप्त जीवों के स्व-स्वपर्याय में निरन्तर अवस्थान का काल प्रतिपादित किया गया है। तीनों के कालमान का विश्लेषण-(१) पर्याप्त जीव जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट कुछ अधिक सागरोपमशतपृथक्त्व तक लगातार पर्याप्त-पर्याय में रहता है, क्योंकि पर्याप्तलब्धि इतने समय तक ही रह सकती है। (२) अपर्याप्त जीव जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त तक लगातार अपर्याप्त रहता है, इसके पश्चात् अवश्य ही पर्याप्त हो जाता है। (३) नोपर्याप्त-नोअपर्याप्त जीव-सिद्ध ही होता है और सिद्धत्व पर्याय सादि-अनन्त अठारहवाँ सूक्ष्मद्वार १३८६. सुहुमे णं भंते ! सुहुमे त्ति० पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं पुढविकालो । [१३८६ प्र.] भगवन् ! सूक्ष्म जीव कितने काल तक सूक्ष्म-पर्यायवाला लगातार रहता है ? [१३८३ उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट पृथ्वीकाल तक (वह सूक्ष्म-पर्याय में रहता १३८७. बादरे णं० पुच्छा? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं असंखेजं कालं जाव(सु. १३६५) खेत्तओ अंगुलस्स असंखेजइभागं । [१३८७ प्र.] भगवन् ! बादर जीव कितने काल तक (लगातार) बादर-पर्याय में रहता है ? । [१३८७ उ.] गौतम ! वह जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट असंख्यातकाल (सू. १३६५ में उक्त कालतः असंख्यात उत्सर्पिणी - अवसर्पिणीकाल) यावत् क्षेत्रत: अंगुल के असंख्यातवें भाग-प्रमाण रहता है। १३८८. णोसुहुमणोबादरे णं भंते ! • पुच्छा ? गोयमा ! सादीए अपजवसिए । दारं १८॥ १. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक ३९५
SR No.003457
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages545
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size11 MB
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