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'असंख्यात लोकप्रमाण है ।
संसारपरीत का लक्षण - जिसने सम्यक्त्व प्राप्त करके अपने भवभ्रमण को परिमित कर लिया हो, वह संसारपरीत कहलाता है। उत्कृष्टत: अनन्तकाल व्यतीत होने पर संसारपरीत जीव अवश्य ही मुक्ति प्राप्त कर लेता है ।
[ प्रज्ञापनासूत्र
काय - अपरीत और संसार - अपरीत- अनन्तकायिक जीव काय- अपरीत कहलाता है तथा संसारअपरीत वह है, जिसने सम्यक्त्व प्राप्त करके संसार को परिमित नहीं किया है। काय - अपरीत जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल (अनन्तकाल ) तक निरन्तर काय - अपरीतपर्याय- युक्त रहता है। जब कोई जीव प्रत्येक शरीर से उद्वर्तन करके निगोद में उत्पन्न होता है और वहाँ अन्तर्मुहूर्त तक ठहर कर पुनः प्रत्येकशरीरीपर्याय में उत्पन्न हो जाता है, उस समय जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त होता है । उत्कृष्ट वनस्पतिकाल जितना अनन्तकालसमझना चाहिए। उसके बाद अवश्य ही उद्वर्तना हो जाती है।
द्विविध संसारपरीत- ( १ ) अनादि - सान्त - जिसके संसार का अन्त कभी न कभी हो जाएगा, वह अनादि-सान्त संसारपरीत कहलाता है। तथा (२) अनादि - अनन्त - जिसके संसार का कदापि विच्छेद नहीं होगा, वह अनादि-अनन्त संसार - अपरीत कहलाता है।
नोपरीत - नोअपरीत- ऐसा जीव सिद्ध होता है। यह पर्याय सादि - अनन्त है ।"
सत्तरहवाँ पर्याप्तद्वार
१.
१३८३. पज्जत्तए णं० पुच्छा ?
गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं सागरोवमसयपुहत्तं सातिरेगं ।
[१३८३ प्र.] भगवन् ! पर्याप्त जीव कितने काल तक निरन्तर पर्याय-अवस्था में रहता है ?
[१३८३ उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट कुछ अधिक शतसागरोपम पृथक्त्व क (निरन्तर पर्याप्त-अवस्था में रहता है) ।
१३८४. अपज्जत्तए णं० पुच्छा ?
गोमा ! जहणेण वि उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं ।
[१३८४ प्र.] भगवन् ! अपर्याप्त जीव, अपर्याप्त अवस्था में निरन्तर कितने काल तक रहता है?
[१३८४ उ.] गौतम ! (वह) जघन्य भी और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त तक (अपर्याप्त-अवस्था में रहता है) । १३८५. णोपज्जत्तए - णोअपज्जत्तए जं० पुच्छा ?
प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक ३९४