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________________ अठारहवाँ कायस्थितिपद] [३९९ अपरीत। १३८०. कायअपरित्ते णं० पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं वणस्सइकालो। [१३८० प्र.] भगवन् ! काय - अपरीत निरन्तर कितने काल तक काय-अपरीत-पर्याय से युक्त रहता है। [१३८० उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल तक (काय-अपरीतपर्याय से युक्त रहता है)। . १३८१. संसारअपरित्ते णं० पुच्छा? गोयमा ! संसारअपरित्ते दुविहे पण्णत्ते । तं जहा- अणादीए वा अपजवसिए १ अणादीए वा सपज्जवसिए २। [१३८१ प्र.] भगवन् ! संसार-अपरीत कितने काल तक संसार-अपरीत-पर्याय में रहता है ? [१३८१ उ.] गौतम ! संसार-अपरीत दो प्रकार के हैं। यथा - (१) अनादि-अपर्यवसित और (२) अनादि-सपर्यवसित। १३८२. णोपरित्ते-णोअपरित्ते णं० पुच्छा ? गोयमा ! सादीए अपजवसिए । दारं १६॥ [१३८२ प्र.] भगवन् ! नोपरीत-नोअपरीत कितने काल तक (लगातार) नोपरीत-नोअपरीत-पर्याय में रहता है ? [१३८२ उ.] गौतम ! (वह) सादि-अपर्यवसित है। सोलहवाँ द्वार ॥१६॥ विवेचन - सोलहवाँ परीतद्वार - प्रस्तुत सात सूत्रों (सू. १३७३ से १३८२) में द्विविध परीत व द्विविध अपरीत और नोपरीत-नोअपरीत जीवों के स्व-स्वपर्याय में अवस्थानकाल की प्ररूपणा की गई हैं। कायपरीत का स्वपर्याय में निरन्तर अवस्थानकाल - प्रत्येकशरीरी जीव कायपरीत कहलाता है। वह जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट पृथ्वीकाल-अर्थात्-असंख्यातकाल तक कायपरीत बना रहता है। यदि कोई जीव निगोद से निकल कर प्रत्येक-शरीररूप में उत्पन्न होता है, उस समय वह अन्तर्मुहूर्त तक जीवित रह कर फिर निगोद में उत्पन्न हो जाता है। उस समय वह अन्तर्मुहूर्त तक ही कायपरीत रहता है। अतएव यहाँ कायपरीत का जघन्य अवस्थानकाल अन्तर्मुहूर्त का कहा है। उत्कृष्टरूप से कायपरीत असंख्यातकाल तक कायपरीत-पर्याय में निरन्तर रहता है। यहाँ असंख्यातकाल पृथ्वीकाल की कालस्थिति के जितना समझना चाहिए। असंख्यात उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी जितना पृथ्वीकाल यहाँ असंख्यातकाल विवक्षित है। क्षेत्रत:
SR No.003457
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages545
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size11 MB
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