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________________ ३८६] [प्रज्ञापनासूत्रं नहीं, सान्त हैं। औपशमिक समयक्त्व अन्तर्मुहूर्त तक और क्षायोपशमिक सम्यक्त्व छियासठ सागरोपम तक रहता है। इसी अपेक्षा से कहा गया है कि सादि-सान्त सम्यग्दृष्टि जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक सम्यग्दृष्टिपर्याययुक्त रहता है, उसके पश्चात् उसे मिथ्यात्व की प्राप्ति हो जाती है। यह कथन औपशमिक सम्यक्त्व की दृष्टि से है। उत्कृष्ट किंचित् अधिक ६६ सागरोपम तक सम्यग्दृष्टि बना रहता है। यह कथन क्षायोपशमिक सम्यक्त्व की अपेक्षा से है। यदि कोई जीव दो बार विजयादि विमानों में सम्यक्त्व के साथ उत्पन्न हो अथवा तीन बार अच्छुतकल्प में उत्पन्न हो तो छियासठ सागरोपम व्यतीत हो जाते हैं और जो किञ्चित् अधिक काल कहा है, वह बीच के मनुष्यभवों का समझना चाहिए।' .. त्रिविधमिथ्यादृष्टि - (१) अनादि-अनन्त- जो अनादिकाल से मिथ्यादृष्टि है और अनन्तकाल तक बना रहेगा, वह अभव्यजीव, (२) अनादि-सान्त- जो अनादिकाल से मिथ्यादृष्टि तो है, किन्तु भविष्य में जिसे सम्यक्त्व की प्राप्ति होगी, (३) सादि-सान्त-मिथ्यादृष्टि- जो सम्यक्त्व को प्राप्त करने के पश्चात् पुनः मिथ्यादृष्टि हो गया है और भविष्य में पुनः सम्यक्त्व प्राप्त करेगा। इन तीनों में से जो सादि-सान्त मिथ्यादृष्टि है, वह जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक मिथ्यादृष्टि रहता है। अन्तर्मुहूर्त तक मिथ्यादृष्टि रहने के पश्चात् उसे पुनः सम्यक्त्व की प्राप्ति हो जाती है। उत्कृष्ट अनन्तकाल तक वह मिथ्यादृष्टि बना रहता है और अनन्तकाल व्यतीत होने के पश्चात् उसे सम्यक्त्व प्राप्त होता है। अनन्तकाल - कालतः अनन्त उत्सर्पिणी-अवसर्पिणियां समझनी चाहिए तथा क्षेत्रतः देशोन अपार्द्ध (क्षेत्र) पुद्गलपरावर्तन सर्वत्र समझना चाहिए।' ____ सम्यग्मिथ्यादृष्टि की कालावस्थिति - मिश्रदृष्टि अन्तर्मुहूर्त के पश्चात् नहीं रहती। अन्तर्मुहूर्त के पश्चात् मिश्रदृष्टि वाला जीव या तो सम्यग्दृष्टि हो जाता है, या मिथ्यादृष्टि हो जाता है, इसलिए सम्यग्मिथ्यादृष्टि का जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त का ही समझना चाहिए। दसवाँ ज्ञानद्वार १३४६. णाणी णं भंते ! णाणीति कालओ केवचिरं होइ ? गोयमा ! णाणी दुविहे पण्णत्ते । तं जहा - सादीए वा अपजवसिए १ सादीए वा सपजवसिए १. (क) प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक ३८७-३८८ (ख) प्रज्ञापनासूत्र. प्रमेयबोधिनी टीका भा. ४, पृ. ४२०-४२१ । (ग) "दो वारे विजयाइस गयस तिनिऽच्चुए अहव ताई । अरेगं नरभवियं................" २. प्रज्ञापनासूत्र, मलय. वृत्ति, पत्रांक ३८८ ३. वही मलय. वृत्ति, पत्रांक ३८८-३८९
SR No.003457
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages545
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size11 MB
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