SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 406
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अठारहवाँ कायस्थितिपद] [३८५ सपज्जवसिए २। तत्था णं जे से सादीए सपज्जवसिए से जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं, छावडिं सागरोवमाइँ सातिरेगाई। [१३४३ प्र.] भगवन् ! सम्यग्दृष्टि कितने काल तक सम्यग्दृष्टिरूप में रहता है ? __ [१३४३ उ.] गौतम ! सम्यग्दृष्टि दो प्रकार के कहे गए हैं, वे इस प्रकार- (१) सादि-अपर्यवसित और (२) सादि-सपर्यवसित। इनमें से जो सादि-सपर्यवसित है, वह जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट कुछ अधिक छियापसठ सागरोपम तक (सादि-सपर्यवसित सम्यग्दृश्टि रूप में रहता है।) १३४४. मिच्छद्दिट्ठी णं भंते ! ० पुच्छा? - गोयमा ! मिच्छट्ठिी तिविहे पण्णत्ते । तं जहा- अणादीए वा अपज्जवसिए १ अणाईए वा सपज्जवसिएं २ सादीए वा सपजवसिए ३। तत्थ णं जे सादीए सपजवसिए से जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं अणंत कालं, अणंताओ उस्सप्पिणि-ओसप्पिणीओ कालओ,खेत्तओ अवडं पोग्गलपरियट्टे देसूणं । __ [१३४४ प्र.] भगवन् ! मिथ्यादृष्टि कितने काल तक मिथ्यादृष्टिरूप में रहता है ? [१३४४ उ.] गौतम ! मिथ्यादृष्टि तीन प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार- (१) अनादि-अपर्यवसित, (२) अनादि-सपर्यवसित और (३) सादि-सपर्यवसित । इनमें से जो सादि-सपर्यवसित है, वह जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट अनन्तकाल तक; (अर्थात्) काल की अपेक्षा से अनन्त उत्सर्पिणो-अवसर्पिणियों तक और क्षेत्र की अपेक्षा से देशोन अपार्द्ध पुद्गल-परावर्त तक (मिथ्यादृष्टि पर्याय से युक्त रहता है।) १३४५. सम्मामिच्छट्टिी ण० पुच्छा ? . गोयमा ! जहण्णेण वि उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं । दारं ९॥ [१३४५ प्र.] भगवन् ! सम्यग्मिथ्यादृष्टि कितने काल तक सम्यमिथ्यादृष्टि बना रहता है ? [१३४५ उ.] गौतम ! (वह) जघन्य भी और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त तक सम्यग्मिथ्यादृष्टिपर्याय में , रहता है। . विवेचन- नौवाँ सम्यक्त्वद्वार - प्रस्तुत तीन सूत्रों (सू. १३४३ से १३४५ तक) में सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि और मिश्रदृष्टि इन तीनों के स्व-स्वपर्याय को कालस्थिति का निरूपण किया गया है। सम्यग्दृष्टि की व्याख्या - जिसको दृष्टि सम्यक्, यथार्थ या अविपरीत हो अथवा जिनप्रणीत वस्तुतत्त्व पर जिसकी श्रद्धा, प्रतीति एवं रुचि सम्यक् हो, उसे सम्यग्दृष्टि कहते हैं। सम्यग्दृष्टि दो प्रकार के होते हैं- सादि-अनन्त- जिसे क्षायिक सम्यक्त्व की प्राप्ति हो जाती है, वह सादि अनन्त सम्यग्दृष्टि है क्योंकि एक बार उत्पन्न होने पर क्षायिक सम्यक्त्व का विनाश नहीं होता।क्षायोपशमिक और औपशमिक सम्यक्त्व की अपेक्षा से सम्यग्दृष्टि सादि-सान्त होता है, क्योंकि ये दोनों सम्यक्त्व अनन्त
SR No.003457
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages545
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy