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अठारहवाँ कायस्थितिपद
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२। तत्थ णं जे से सादीए सपजवसिए से जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं छावढेि सागरोवमाई सााइरेगाई।
[१३४६ प्र.] भगवन् ! ज्ञानी जीव कितने काल तक ज्ञानीपर्याय में निरन्तर रहता है ?
[१२४६ उ.] गौतम ! ज्ञानी दो प्रकार के कहे गए हैं, वे इस प्रकार - (१) सादि-अपर्यवसित और - (२) सादि-सपर्यवसित। इनमें से जो सादि-सपर्यवसित है, वह जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट कुछ अधिक छियापठ सागरोपम तक (लगातार ज्ञानीरूप में बना रहता है।)
१३४७. आभिणिबोहियणाणी णं भंते ! ० पुच्छा ? गोयमा ! एवं चेव । [१३४७ प्र.] भगवन् ! आभिनिबोधिकज्ञानी आभिनिबोधिकज्ञानी के रूप में कितने काल तक रहता है?
[१३४७ उ.] गौतम ! (सामान्य ज्ञानी के विषय में जैसा कहा है) इसी प्रकार (इसके विषय में समझ लेना चाहिए।)
१३४८ एवं सुयणाणी वि। [१३४८] इसी प्रकार श्रुतज्ञानी (का भी कालमान समझ लेना चाहिए।) १३४९. ओहिणाणी वि एवं चेव। णवरं जहणेणं एक्कं समयं।
[१३४९] अवधिज्ञानी का कालमान भी इसी प्रकार है, विशेषता यह है कि वह जघन्य एक समय तक ही (अवधिज्ञानी के रूप में रहता है।)
१३५०. मणपजवणाणी णं भंते ! मणपजवणाणीति कालओ केवचिरं होइ ? गोयमा ! जहण्णेणं एक समयं, उक्कोसेणं देसूणं पुव्वकोडिं।
[१३५० प्र.] भगवन् ! मनःपर्यवज्ञानी कितने काल तक (निरनन्तर) मनःपर्यवज्ञानी के रूप में रहता है ?
[१३५० उ.] गौतम ! (वह) जघन्य एक समय और उत्कृष्ट देशोन पूर्वकोटि (करोड़-पूर्व) तक (सतत मनःपर्यवज्ञानीपर्याय में रहता है।)
१३५१. केवलणाणी णं ० पुच्छा ? गोयमा ! सादीए अपजवसिए । [१३५१ प्र.] भगवन् ! केवलज्ञानी, केवलज्ञानी के रूप में कितने काल तक रहता है ? [१३५१ उ.] गौतम ! (केवलज्ञानी-पर्याय) सादि-अपर्यवसित होती है।