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________________ अठारहवाँ कायस्थितिपद [३८७ २। तत्थ णं जे से सादीए सपजवसिए से जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं छावढेि सागरोवमाई सााइरेगाई। [१३४६ प्र.] भगवन् ! ज्ञानी जीव कितने काल तक ज्ञानीपर्याय में निरन्तर रहता है ? [१२४६ उ.] गौतम ! ज्ञानी दो प्रकार के कहे गए हैं, वे इस प्रकार - (१) सादि-अपर्यवसित और - (२) सादि-सपर्यवसित। इनमें से जो सादि-सपर्यवसित है, वह जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट कुछ अधिक छियापठ सागरोपम तक (लगातार ज्ञानीरूप में बना रहता है।) १३४७. आभिणिबोहियणाणी णं भंते ! ० पुच्छा ? गोयमा ! एवं चेव । [१३४७ प्र.] भगवन् ! आभिनिबोधिकज्ञानी आभिनिबोधिकज्ञानी के रूप में कितने काल तक रहता है? [१३४७ उ.] गौतम ! (सामान्य ज्ञानी के विषय में जैसा कहा है) इसी प्रकार (इसके विषय में समझ लेना चाहिए।) १३४८ एवं सुयणाणी वि। [१३४८] इसी प्रकार श्रुतज्ञानी (का भी कालमान समझ लेना चाहिए।) १३४९. ओहिणाणी वि एवं चेव। णवरं जहणेणं एक्कं समयं। [१३४९] अवधिज्ञानी का कालमान भी इसी प्रकार है, विशेषता यह है कि वह जघन्य एक समय तक ही (अवधिज्ञानी के रूप में रहता है।) १३५०. मणपजवणाणी णं भंते ! मणपजवणाणीति कालओ केवचिरं होइ ? गोयमा ! जहण्णेणं एक समयं, उक्कोसेणं देसूणं पुव्वकोडिं। [१३५० प्र.] भगवन् ! मनःपर्यवज्ञानी कितने काल तक (निरनन्तर) मनःपर्यवज्ञानी के रूप में रहता है ? [१३५० उ.] गौतम ! (वह) जघन्य एक समय और उत्कृष्ट देशोन पूर्वकोटि (करोड़-पूर्व) तक (सतत मनःपर्यवज्ञानीपर्याय में रहता है।) १३५१. केवलणाणी णं ० पुच्छा ? गोयमा ! सादीए अपजवसिए । [१३५१ प्र.] भगवन् ! केवलज्ञानी, केवलज्ञानी के रूप में कितने काल तक रहता है ? [१३५१ उ.] गौतम ! (केवलज्ञानी-पर्याय) सादि-अपर्यवसित होती है।
SR No.003457
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages545
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size11 MB
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