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________________ ३८८] [प्रज्ञापनासूत्रं १३५२. अण्णाणी-मइअण्णाणी-सुयअण्णाणी णं० पुच्छा ? गोयमा ! अण्णाणी मतिअण्णाणी सुयअण्णाणी तिविहे पण्णत्ते। तं जहा - अणादीए वा अपज्जवसिए १ अणादीए वा सपजवसिए २ सादीए वाा सपजवसिए ३। तत्थ णं जे से सादीए सपज्जवसिए से जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं अणंतं कालं, अणंताओ उस्सप्पिणि ओसप्पिणीओ कालओ, खेत्तओ अवढं पोग्गलपरियट्ट देसूणं । [१३५२ प्र.] भगवन् ! अज्ञानी, मति-अज्ञानी, श्रुत-अज्ञानी कितने काल तक (निरन्तर स्व-पर्याय में रहते हैं ?) [१३५२ उ.] गौतम ! अज्ञानी, मति-अज्ञानी और श्रुत-अज्ञानी तीन-तीन प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार- (१) अनादि-अपर्यवसित, (२) अनादि-सपर्यवसित और (३) सादि-सपर्यवसित। उनमें से जो सादि-सपर्यवसित है, वह जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट अनन्तकाल तक (अर्थात्) काल की अपेक्षा से अनन्त उत्सर्पिणी-अवसर्पिणियों तक एवं क्षेत्र की अपेक्षा से देशोन अपार्द्ध पुद्गलपरावर्त तक (निरन्तर स्वस्वपर्याय में रहते हैं।) १३५३. विभंगणाणी णं भंते ! ० पुच्छा? गोयमा ! जहण्णेणं एक्कं समय, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई देसूणाए पुव्वकोडीए अब्भइयाई। दारं १०॥ [१३५३ प्र.] भगवन् ! विभंगज्ञानी कितने काल तक विभंगज्ञानी के रूप में रहता है ? [१३५३ उ.] गौतम ! जघन्य एक समय तक, उत्कृष्ट देशोन पूर्वकोटि अधिक तेतीस सागरोपम तक (वह विभंगज्ञानी-पर्याय में लगातार बना रहता है।) दसवाँ द्वार ॥१०॥ विवेचन - दसवाँ ज्ञानद्वार- प्रस्तुत आठ सूत्रों (सू. १३४६ से १३५३ तक) में सामान्य ज्ञानी आभिनिबोधिक आदि ज्ञानी, अज्ञानी, मत्यादि अज्ञानी, स्व-स्वपर्याय में कितने काल तक रहते हैं ? इसका चिन्तन प्रस्तुत किया गया है। ज्ञानी-अज्ञानी की परिभाषा- जिसमें सम्यग्दर्शनपूर्वक सम्यग्ज्ञान हो, वह ज्ञानी कहलाता है; जिसमें सम्यग्ज्ञान न हो, वह अज्ञानी कहलाता है। द्विविध ज्ञानी - (१) सादि-अपर्यवसित- जिस जीव को सम्यग्ज्ञान उत्पन्न होने के पश्चात् सदैव बना रहे, वह क्षायिक सम्यग्दृष्टि ज्ञानी या केवलज्ञानी सादि-अपर्यवसित ज्ञानी है।(२)सादि-सपर्यवसितजिसका सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन का अभाव होने पर नष्ट होने वाला है, वह सादि-सपर्यवसित ज्ञानी है। केवलज्ञान के सिवाय अन्य ज्ञानों की अपेक्षा ऐसा ज्ञानी सादि-सपर्यवसित कहलाता है, क्योंकि वे ज्ञान नियतकालभावी हैं, अनन्त नहीं हैं। इन दोनों में से सादि-सान्त ज्ञानी-अवस्था जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक रहती है, उसके पश्चात् मिथ्यात्व के उदय से ज्ञानपरिणाम का विनाश हो जाता है। उत्कृष्टकाल जो ६६ सागरोपम से कुछ
SR No.003457
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages545
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size11 MB
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