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________________ १२४ ] [प्रज्ञापनासूत्र सम्मूर्छिम । गर्भज मनुष्य (प्रवाहरूप से) सदा स्थायी रहते हैं। कोई भी काल ऐसा नहीं होता, जो गर्भज मनुष्यों से रहित हो; किन्तु सम्मूर्छिम मनुष्य कभी होते हैं, कदाचित् उनका सर्वथा अभाव हो जाता है, क्योंकि सम्मूर्छिम मनुष्यों की उत्कृष्ट आयु भी अन्तर्मुहूर्त की होती है। उनकी उत्पत्ति का अन्तर (विरहकाल) उत्कृष्ट चौबीस मुहूर्त प्रमाण कहा गया है। अतएव जिस काल में सम्मूर्छिम मनुष्य सर्वथा विद्यमान नहीं होते, अपितु केवल गर्भज मनुष्य ही होते हैं, उस समय बद्ध औदारिकशरीर संख्यात ही होते हैं, क्योंकि गर्भज मनुष्यों को संख्या संख्यात ही है, वे महाशरीररूप में या प्रत्येकशरीर रूप में होने से परिमितक्षेत्रवर्ती होते हैं। जब सम्मूर्छिम मनुष्य विद्यमान होते हैं, तब मनुष्यों की संख्या असंख्यात होती है। सम्मूर्छिम मनुष्य उत्कृष्टतः श्रेणी के असंख्यातवें भागवर्ती आकाशप्रदेशों की राशि-प्रमाण होते हैं। इसी दृष्टि से मूलपाठ में कहा गया है - जहन्नपदे संखेजा। जघन्यपद का अभिप्राय है-जहाँ सबसे थोड़े मनुष्य पाए जाते हैं। प्रश्न होता है - क्या वे (सबसे कम मनुष्य) सम्मूर्छिम होते हैं या गर्भज? इसके उत्तर में यही कहा जा सकता है कि गर्भज मनुष्य ही होते हैं, जो सदैव स्थायी होने से सम्मूछिमों के अभाव में सबसे थोड़े पाए जाते हैं। उत्कृष्टपद में गर्भज और सम्मूर्च्छिम दोनों का ही ग्रहण होता है। इस जघन्यपद से यहाँ संख्यात मनुष्यों का ग्रहण होता है। किन्तु संख्यात के भी संख्यात-भेद होते हैं, इसलिए संख्यात कहने से कितनी संख्या है, इसका विशेष बोध नही होताः इसलिए शास्त्रकार विशिष्ट संख्या निर्धारित करते हैं- संख्यातकोटाकोटी हैं। इस परिमाण को और अधिक स्पष्ट करने के उद्देश्य से कहते है- 'तीन यमलपद के ऊपर और चार यमलपद के नीचे'। इसका आशय इस प्रकार है - मनुष्यों की संख्या का प्रतिपादन करने वाले उनतीस (२९) अंक आगे कहे जाएँगे। शास्त्रीय परिभाषा के अनुसार आठ-आठ अंकों की एक 'यमलपद' संज्ञा है। अत: चौबीस (२४) अंकों के तीन यमलपद हए। इसके पश्चात् (२४ अंकों के बाद) पांच अंक-स्थान शेष रहते हैं। किन्तु चौथे यमलपद की पूर्ति आठ अंकों से होती है, उसमें तीन अंकस्थान कम हैं। अत: चौथा यमलपद पूरा नहीं होता। इसी कारण यहाँ मनुष्य-संख्याप्रतिपादक २९ अंकों के लिए कहा गया है - 'तीन यमलपदों के ऊपर और चार यमलपदों से नीचे'- अर्थात् २९ अंक प्रमाण । अथवा - दो वर्ग मिलकर एक यमलपद होता है। चार वर्ग मिलकर दो यमलपद होते हैं, तथा छह वर्ग मिलकर तीन यमलपद होते हैं और आठ वर्ग मिलकर चार यमलपद होते हैं। अत: छह वर्गों के ऊपर और सातवें वर्ग के नीचे कहें, चाहे तीन यमलपदों के ऊपर और चार यमलपदों से नीचें कहें, एक ही बात हुई। अब इससे भी अधिक स्पष्ट रूप से मनुष्यों की संख्या का प्रतिपादन करते हैं - पंचम वर्ग से छठे वर्ग को गूणित करने पर जो राशि निष्पन्न होती है, जघन्यवपद में उस राशिप्रमाण मनुष्यों की संख्या है। एक को एक के साथ गुणाकार करने पर गुणनफल एक ही आता है, संख्या में वृद्धि नहीं होती, अतः 'एक' की वर्ग के रूप में गणना नहीं होती। किन्तु दो का दो के साथ गुणाकार करने पर ४ संख्या आती है, यह प्रथम वर्ग हुआ। चार के साथ चारै को गुणा करने पर १६ संख्या आई, यह द्वितीय वर्ग हुआ, फिर १६ को १६ के साथ गुणा करने पर २५६ संख्या आई, यह तृतीय वर्ग हुआ। २५६ को २५६ के साथ गुणा करने पर ६५५३६ राशि
SR No.003457
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages545
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size11 MB
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