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बारहवाँ शरीरपद]
[१२१ अर्थात्-असंख्यात श्रेणियों में जितने आकाशप्रदेश होते हैं, उतने ही प्रमाण में इनके बद्ध औदारिकशरीर हैं। उन श्रेणियों का परिमाणविशेष इस प्रकार है-पूर्वोक्त प्रकार से वे श्रेणियाँ प्रतर के असंख्यातभाग-प्रमाण होती हैं। अर्थात्- प्रतर के असंख्यातभाग-प्रमाण असंख्यातश्रेणियाँ होती हैं । नारकों और भवनपतियों के शरीरों के प्रतरासंख्येयभाग की अपेक्षा द्वीन्द्रियों के शरीरों का प्रतरासंख्येयभाग कुछ भिन्न प्रकार का है वह इस प्रकार है- उन श्रेणियों का परिमाण निश्चित करने के लिए जो विष्कम्भ (विस्तार-) सूची मानी है, वह असंख्यातकोटाकोटी योजन-प्रमाण समझनी चाहिए। अथवा - एक परिपूर्ण श्रेणी के प्रदेशों की जो राशि होती है, उसका जो प्रथम, द्वितीय, तृतीय, यावत् असंख्यातवाँ वर्गमूल है, उन सबको संकलित कर लिया जाय। उन सबको संकलित करने पर जितनी प्रदेशराशि हो, उतने प्रदेशों वाली विष्कम्भसूची समझनी चाहिए। इसे एक उदाहरण के द्वारा समझिए - यद्यपि श्रेणी में असंख्यातप्रदेश होते हैं, किन्तु असत्कल्पना से उन्हें मूल ६५५३६ (पैंसठ हजार पांच सौ छत्तीस) मान लें, तो उनका प्रथम वर्गमूल २५६ आता है, दूसरा वर्गमूल १६, तीसरा वर्गमूल ४ और चौथा वर्गमूल २ आता है। इन सब संख्याओं का योग २७८ होता है। असत्कल्पना से इतने प्रदेशों की सूची समझनी चाहिए।
द्वीन्द्रिय जीवों के शरीर कितनी अवगाहना के द्वारा कितने काल में सम्पूर्ण प्रतर को पूरा करते हैं ? इसका समाधान शास्त्रकार यों करते हैं- द्वीन्द्रिय जीवों के बद्ध औदारिकशरीर असंख्यात उत्सर्पिणीअवसर्पिणी-कालों में सम्पूर्ण प्रतर को पूर्ण करते हैं । क्षेत्र और काल की अपेक्षा से परिमाण- एक प्रादेशिकश्रेणीरूप अंगुलमात्र प्रतर के असंख्यातभाग-प्रतिभागप्रमाण खण्ड से यह क्षेत्रदृष्टि से परिमाण है तथा काल की दृष्टि से परिमाण-आवलिका के असंख्येयभाग प्रतिभाग से- अर्थात् असंख्यातवें प्रतिभाग से अपहृत होता है । इसका तात्पर्य यह है कि एक द्वीन्द्रिय के द्वारा अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण खण्ड आवलिका के असंख्यातवें भाग से अपहृत होता है । द्वितीय द्वीन्द्रिय के द्वारा भी उतने ही प्रमाण वाला खण्ड उतने ही काल में अपहृत होता है । इस प्रकार से अपहृत किया जाने वाला प्रतर समस्त द्वीन्द्रियों द्वारा असंख्यात उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी कालों में सम्पूर्ण अपहृत होता है ।
__द्वीन्द्रियों के मुक्त औदारिकशरीरों की प्ररूपणा समुच्चय मुक्त औदारिकशरीरों के समान समझनी चाहिए ।
द्वीन्द्रियों के बद्ध-मुक्त वैक्रिय, आहारक, तैजस-कार्मणशरीरों की प्ररूपणा - द्वीन्द्रियों के बद्ध वैक्रिय और आहारक शरीर नहीं होते । मुक्त वैक्रिय और आहारक शरीरों की प्ररूपणा समुच्चय मुक्त औदारिक शरीरवत् समझनी चाहिए । इनके बद्ध मुक्त तैजस-कार्मणशरीरों की प्ररूपणा इन्हीं के बद्ध-मुक्त औदारिकशरीरों की तरह जाननी चाहिए ।
त्रीन्द्रिय-चतुरिन्द्रियों के बद्ध-मुक्त औदारिक आदि शरीरों की प्ररूपणा - द्वीन्द्रियों के बद्ध-मुक्त शरीरों के समान ही इनके बद्ध-मुक्त सब शरीरों की प्ररूपणा करनी चाहिए ।