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________________ १२२ ] [ प्रज्ञापनासूत्र पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों के बद्ध-मुक्त शरीरों की प्ररूपणा - पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों के बद्ध-मुक्त औदारिकशरीरों का कथन द्वीन्द्रियों के समान ही समझना चाहिए । बद्ध-वैक्रिय शरीर असंख्यात होते हैं । काल और क्षेत्र की अपेक्षा से परिमाण की सब प्ररूपणा असुरकुमारों के समान समझनी चाहिए, किन्तु विशेषता यह है कि असुरकुमारों की वक्तव्यता में श्रेणियों की विष्कम्भसूची का प्रमाण अंगुल के प्रथम वर्गमूल का संख्यातवाँ भाग बतलाया था, जबकि यहाँ असंख्यातवाँ भाग समझना चाहिए । इसका तात्पर्य यह है कि एक अंगुलमात्र क्षेत्र के प्रदेशों की राशि के प्रथम वर्गमूल के असंख्यातवें भाग में जितने आकाशप्रदेश होते हैं, उतने प्रदेशरूप सूची की जो श्रेणियाँ स्पृष्ट हैं उन श्रेणियों में जितने आकाशप्रदेश होते हैं, उतने प्रमाण में ही तिर्यञ्चपंचेन्द्रियों के बद्धवैक्रियशरीर होते हैं । इनके मुक्त वैक्रियशरीरों की प्ररूपणा औधिक (समुच्चय) वैक्रियशरीरों के समान समझनी चाहिए । बद्ध आहारकशरीर इनके नहीं होते । मुक्त आहारकशरीर की प्ररूपणा पूर्ववत् समझनी चाहिए । इनके बद्ध तैजस-कार्मण-शरीर इन्हीं के बद्ध औदारिकशरीरवत् हैं । मुक्त तैजस-कार्मणशरीर समुच्चय मुक्त तैजस-कार्मण-शरीरवत् समझना चाहिए।' मनुष्यों के बद्ध-मुक्त औदारिकादि शरीरों का परिमाण ९२१.[१] मणुस्साणं भंते ! केवतिया ओरालियसरीरा पण्णत्ता ? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता ।तं जहा-बद्धेल्लगा मुक्केल्लगाय।तत्थ णं जे ते बद्धेल्लगा ते णं सिय संखेजा सिय असंखेजा, जहण्णपए संखेज्जा संखेजाओ कोडाकोडीओ तिजमलपयस्स उवरि चउजमलपयस्स हेट्ठा, अहवणं छट्ठो वग्गो पंचमवग्गपडुप्पण्णो, अहवणं छण्णउईछेयणगदाई रासी; उक्कोसपदे असंखेज्जा, असंखेजाहिं उस्सप्पिणि-ओसप्पिणीहिं अवहीरंति कालओ, खेत्तओ रूवपक्खित्तेहिं सेढी अवहीरति, तीसे सेढीए काल-खेत्तेहिं अवहारोमग्गिजइ-असंखेजाहि उस्सप्पिणि ओसप्पिणीहिं कालओ, खेत्तओ अंगुलपढमवग्गमूलं ततियवग्गमूलपडुप्पण्णं । तत्थ णंजेते मुक्केल्लगा ते जहा ओरालिया ओहिया मुक्केल्लगा (सु. ९१० [१])। [९२१-१ प्र.] भगवन् ! मनुष्य के औदारिकशरीर कितने कहे गए हैं ? [९२१-१ उ.] गौतम ! (वे) दो प्रकार के कहे गए हैं, वे इस प्रकार-बद्ध और मुक्त । उनमें से जो बद्ध हैं, वे कदाचित् संख्यात और कदाचित् असंख्यात होते हैं । जघन्य पद में संख्यात होते हैं । संख्यात कोटाकोटी तीन यमलपद के ऊपर तथा चार यमलपद से नीचे होते हैं । अथवा पंचमवर्ग से गुणित १. (क) प्रज्ञापना मलय. वृत्ति, पत्रांक २७७ से २९७ तक __ (ख) अंगुलमूलासंखेयभागप्पमियाउ होंति सेढीओ । उत्तरविउव्वियाणं तिरियाणं सन्निपज्जाणं ॥ -प्रज्ञापना
SR No.003457
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages545
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size11 MB
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