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[ प्रज्ञापनासूत्र
कथन किया गया था, उसी प्रकार पृथक्त्व (बहुवचन के रूप में (नैरकों से लेकर वत् वैमानिक तक समझ लेना चाहिए ।
८९०. जीवे णं भंते ! जाई दव्वाइं सच्चभासत्ताए गेण्हति ता ऊं ठियाई गेण्हति ? अठियाई गेण्हति ?
गोयमा ! जहा ओहियदंडओ (सु. ८७७ ) तहा एसो वि। नवरंगोंदिया ण पुच्छिज्जंति । एवं मोसभासाए वि सच्चामोसभासाए वि ।
[८९० प्र.] भगवन् ! जीव जिन द्रव्यों को सत्यभाषा के रूप में ग्रहण करता है, क्या (वह) उन स्थितद्रव्यों को ग्रहण करता है, अथवा अस्थितद्रव्यों को ?
[८९० उ.] गौतम ! जैसे (सू. ८७७ में ) औधिक जीवविषयक दण्डक है, वैसे यह दण्डक भी कहना चाहिए । विशेष यह है कि विकलेन्द्रियों के विषय में (उनकी भाषा सत्य न होने से) पृच्छा नहीं करनी चाहिए। जैसे सत्यभाषाद्रव्यों के ग्रहण के विषय में कहा है, वैसे ही मृषाभाषा के (द्रव्यों) तथा सत्यामृषाभाषा (द्रव्यों के ग्रहण के विषय में भी कहना चाहिए ।)
८९१. असच्चामोसभासाए वि एवं चेव । नवरं असच्चामोसभासाए विगलिंदिया वि पुच्छिज्जंति इमेणं अभिलावेणं
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विगलिंदिए णं भंते! जाई दव्वाइं असच्चामोसभासत्ताए गेण्हति ताइं किं ठियाई गेण्हति ? अठियाई गेण्हति ?
गोयमा ! जहा ओहियदंडओ (सु. ८७७) । एवं एते एगत्तपुहत्तेणं दस दंडगा भावियव्वा ।
[८९१] असत्यामृषाभाषा के (द्रव्यों के ग्रहण के) विषय में भी इसी प्रकार कहना चाहिए । विशेष यह है कि असत्यामृषाभाषा के ग्रहण के सम्बन्ध में इस अभिलाप के द्वारा विकलेन्द्रियों की भी पृच्छा करनी चाहिए -
[प्र.] भगवन् ! विकलेन्द्रिय जीव जिन द्रव्यों को असत्यामृषाभाषा के रूप में ग्रहण करता है, क्या वह उन स्थितद्रव्यों को ग्रहण करता है, अथवा अस्थितद्रव्यों को ग्रहण करता है ?
[उ.] गौतम ! जैसे (सू. ८७७ में) औधिक दण्डक कहा गया है, वैसे ही (यहाँ समझ लेना चाहिए।) इस प्रकार एकत्व (एकवचन) और पृथक्त्व (बहुवचन) के ये दस दण्डक कहने चाहिए ।
८९२. जीवे णं भंते ! जाई दव्वाइं सच्चभासत्ताए गेण्हति ताइं किं सच्चभासत्ताए णिसिरति ? मोसभासत्ताए णिसिरति ? सच्चामोसभासत्ताए णिसिरति ? असच्चामोसभासत्ताए णिसिरति ?
गोयमा ! सच्चभासत्ताए णिसिरति, णो मोसभासत्ताए णिसिरति, णो सच्चामोसभासत्ताए