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________________ ग्यारहवाँ भाषापद] [९५ णिसिरति, णो असच्चामोसभासत्ताए णिसिरति । एवं एगिंदिय-विगलिंदियवज्जो दंडओ जाव वेमाणिए। एवं पुहुत्तेण वि । [८९२ प्र.] भगवन् ! जीव जिन द्रव्यों को सत्यभाषा के रूप में ग्रहण करता है, क्या उनको वह सत्यभाषा के रूप में निकालता है, मृषाभाषा के रूप में निकालता है, सत्यामृषाभाषा के रूप में निकालता है, अथवा असत्यामृषाभाषा के रूप में निकालता है ? [८९२ उ.] गौतम ! वह (सत्यभाषा के रूप में गृहीत उन द्रव्यों को) सत्यभाषा के रूप में निकालता है, किन्तु न तो मृषाभाषा के रूप में निकालता है, न सत्यामृषाभाषा के रूप में निकालता है, और न ही असत्यामृषाभाषा के रूप में निकालता है। इसी प्रकार यावत् वैमानिक तक एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय को छोड़ कर (एकवचन का) दण्डक कहना चाहिए तथा इसी तरह पृथक्त्व (बहुवचन) का दण्डक भी कहना चाहिए। ८९३. जीवे णं भंते ! जाइं दव्वाइं मोसभासत्ताए गेण्हति ताई किं सच्चभासत्ताए णिसिरति ? मोसभासत्ताए णिसिरति ? सच्चामोसभासत्ताए णिसिरति ? असच्चामोसभासत्ताए णिसिरति ? गोयमा ! णो सच्चभासत्ताए णिसिरति, मोसभासत्ताए णिसिरति, णो सच्चामोसभासत्ताए णिसिरति, णो असच्चामोसभासत्ताए णिसिरति । [८९३ प्र.] भगवन् ! जीव जिन द्रव्यों को मृषाभाषा के रूप में ग्रहण करता है, क्या उन्हें वह सत्यभाषा के रूप में निकालता है ? अथवा मृषाभाषा के रूप में निकालता है ? या सत्यामृषा भाषा के रूप में निकालता है ? अथवा असत्यामृषाभाषा के रूप में निकालता है ? [८९३ उ.] गौतम ! (वह मृषाभाषारूप में गृहीत द्रव्यों को) सत्यभाषा के रूप में नहीं निकालता, किन्तु मृषाभाषा के रूप में ही निकालता है, तथा सत्यामृषा के रूप में नहीं निकलता और न ही असत्यामृषा भाषा के रूप में निकलाता है। ८९४. एवं सच्चामोसभासत्ताए वि । [८९४] इसी प्रकार सत्यामृषाभाषा के रूप में (गृहीत द्रव्यों के विषय में भी समझना चाहिए ।) ८९५. असच्चामोसभासत्ताए वि एवं चेव । णवरं असच्चामोसभासत्ताए विगलिंदिया तहेव पुच्छिज्जति। जाए चेव गेण्हति ताए चेव णिसिरति । एवं एते एगत्त-पुहत्तिया अट्ठ दंडगा भाणियव्वा। [८९५] असत्यामृषाभाषा के रूप में गृहीत द्रव्यों के विषय में भी इसी प्रकार समझना चाहिए। विशेषता यह है कि असत्यामृषाभाषा के रूप में गृहीत द्रव्यों के विषय में विकलेन्द्रियों की भी पृच्छा उसी प्रकार (पूर्ववत्) करनी चाहिए। (सिद्धान्त यह है कि) जिस भाषा के रूप में द्रव्यों को ग्रहण करता है, उसी
SR No.003457
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages545
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size11 MB
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