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________________ ९६ ] . [प्रज्ञापनासूत्र भाषा के रूप में ही द्रव्यों को निकालता है। इस प्रकार एकत्व (एकवचन) और पृथक्त्व (बहुवचन) के ये (कुल मिला कर) आठ दण्डक कहने चाहिए । विवेचन - भाषाद्रव्यों के भेद-अभेदरूप में निःसरण तथा ग्रहण-निःसरण के विषय में प्ररूपणा - प्रस्तुत सोलह सूत्रों (८८० से ८९५ तक) में भाषाद्रव्यों के भिन्न तथा अभिन्न रूप में नि:सरण, भेदों के अल्पबहुत्व तथा भाषाद्रव्यों के ग्रहण-नि:सरण के विषय में प्ररूपणा की गई है। नैरयिक आदि के विषय में अतिदेश - नैरयिक जिन द्रव्यों को भाषा के रूप में ग्रहण करता है, वे स्थित (स्थिर) होते हैं या अस्थित (संचरणशील) ? इस प्रश्न के पूछे जाने पर शास्त्रकार अतिदेश करते हुए कहते हैं - स्थित-अस्थित द्रव्यों के ग्रहण की प्ररूपणा से लेकर अल्पबहुत्व तक की जैसी प्ररूपणा समुच्चय जीव के विषय में की है, वैसी ही प्ररूपणा नैरयिक से लेकर वैमानिक पर्यन्त (एकेन्द्रिय को छोड़कर) करनी चाहिए। भिन्न-अभिन्न भाषाद्रव्यों के निःसरण की व्याख्या - वक्ता दो प्रकार के होते हैं, तीव्रप्रयत्न वाले और मन्दप्रयत्न वाले। जो वक्ता रोगग्रस्तता, जराग्रस्तता या अनादरभाव के कारण मन्दप्रयत्न वाला होता है, उसके द्वारा निकाले हुए भाषाद्रव्य अभिन्न-स्थूलखण्डरूप एवं अव्यक्त होते हैं । जो वक्ता नीरोग, बलवान् एवं आदरभाव के कारण तीव्रप्रयत्नवान् होता है, उसके द्वारा निकाले हुए भाषाद्रव्य खण्ड-खण्ड एवं स्फुट होते हैं। तीव्रप्रयत्नवान् वक्ता द्वारा छोड़े गये भाषाद्रव्य खंडित होने के कारण सूक्ष्म होने से और अन्य द्रव्यों को वासित करने के कारण अनन्तगुण वृद्धि को प्राप्त होकर लोक के अंत तक पहुंचते हैं और संपूर्ण लोक में व्याप्त हो जाते हैं। मंदप्रयत्न द्वारा छोड़े गये भाषाद्रव्य लोकान्त तक नहीं पहुंच पाते। वे असंख्यात अवगाहन वर्गणा तक जाते हैं । वहाँ जाकर भेद को प्राप्त होते हैं, फिर संख्यात योजन तक आगे जाकर विध्वस्त हो जाते हैं। एकत्व और पृथक्त्व के आठ दण्डक - एकेन्द्रिय को छोड़कर नैरयिकों से लेकर ४ भाषाओं के द्रव्यों के ग्रहण-नि:सरण-सम्बन्धी एकवचन के चार दण्डक और बहुवचन के चार दण्डक, यों आठ दण्डक हुए। १. (क) प्रज्ञाापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक २६७ __(ख) प्रज्ञापनासूत्र प्रमेयबोधिनी टीका भा. ३, पृ. ३८० "कोई मंदपयत्तो निसिरइ सकलाई सव्वदव्वाइं । अन्नो तिव्वपयत्तो सो मुंचइ भिंदिउ ताई ॥" प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनी टीका, पृ. ३८० २. (क) प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक २६७ (ख) प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनी टीका भा. ३, पृ. ३७३ से ४०५ तक
SR No.003457
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages545
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size11 MB
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