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________________ सत्तरहवाँ लेश्यापद : प्रथम उद्देशक ] उच्छ्वास-निःश्वास वाले नहीं होते ? [उ.] गौतम ! नारक दो प्रकार के हैं, वे इस प्रकार - महाशरीर वाले और अल्पशरीर वाले । उनमें से जो महाशरीर वाले नारक होते हैं, वे बहुत अधिक पुद्गलों का आहार करते हैं, प्रभूततर पुद्गलों को परिणत करते हैं, बहुत-से पुद्गलों का उच्छ्वास लेते हैं, और बहुत से पुद्गलों का निःश्वास छोड़ते हैं। वे बार-बार आहार करते हैं, बार-बार (पुद्गलों को) परिणत करते हैं, बार-बार उच्छ्वसन करते हैं। वे बार-बार निःश्वसन करते हैं, उनमें जो छोटे (अल्प) शरीर वाले हैं, वे अल्पतर (थोड़े) पुद्गलों का आहार करते हैं, अल्पतर पुद्गलों को परिणत करते हैं, अल्पतर पुद्गलों का उच्छ्वास लेते हैं और अल्पतर पुद्गलों का निःश्वास छोड़ते हैं। वे कदाचित् आहार करते हैं, कदाचित् (पुद्गलों को) परिणत करते हैं तथा कदाचित् उच्छ्वसन करते हैं और कदाचित् निःश्वसन करते हैं। इस हेतु से हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि नारक सभी समान आहार वाले नहीं होते, समान शरीर वाले नहीं होते और न ही समान उच्छ्वास- नि:श्वास वाले होते हैं । - प्रथम द्वारा ॥ १ ॥ ११२५. णेरड्या णं भंते सव्वे समकम्मा ? गोयमा ! णो इणट्टे समट्टे । सेकेणणं भंते! एवं वुच्चइ ? णेरड्या णो सव्वे समकम्मा ? गोयमा ! णेरइया दुविहा पण्णत्ता, तं जहा - पुव्वोववण्णगा य पच्छोववण्णगा य । तत्थ णं जे ते पुव्वोववण्णगा ते णं अप्पकम्मतरागा । तत्थ णं जे ते पच्छोववण्णगा ते णं महाकम्मतरागा, एणणं गोयमा ! एवं वुच्चइ णेरइया णो सव्वे समकम्मा २ । [११२५ प्र.] भगवन् ! नैरयिक क्या सभी समान कर्म वाले होते हैं ? [११२५ उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । [२६७ [प्र.] भगवन् ! किस हेतु से आप ऐसा कहते हैं कि नारक सभी समान कर्म वाले नहीं होते ? [उ.] गौतम ! नारक दो प्रकार के कहे गए हैं, वे इस प्रकार पूर्वोपपन्नक (पहले उत्पन्न हुए) और पश्चादुपपन्नक (पीछे उत्पन्न हुए) । उनमें जो पूर्वोपपन्नक हैं, वे (अपेक्षाकृत) अल्प कर्म वाले हैं और उनमें जो पश्चादुपपन्नक हैं, वे महाकर्म (बहुत कर्म) वाले हैं। इस कारण हे गौतम! ऐसा कहा जाता है कि नैरयिक सभी समान कर्म वाले नहीं होते । - द्वितीय द्वार ॥ २ ॥ ११२६. णेरइया णं भंते ! सव्वे समवण्णा ? गोयमा ! णो इणट्टे | - णणं भंते! एवं वुच्चइ णेरड्या णो सव्वे समवण्णा ? गोमा ! णेरड्या दुविहा पण्णत्ता, तं जहा - पुव्वोववण्णगा य पच्छोववण्णा । तत्थ जे ते पुव्वोववण्णगा ते णं विसुद्धवण्णतरागा । तत्थ णं जे ते पच्छोववण्णगा ते णं अविसुद्धवण्णतरागा,
SR No.003457
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages545
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size11 MB
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