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[प्रज्ञापनासूत्र
योग के सद्भाव में लेश्या का सद्भाव होता है, योग का अभाव होने पर लेश्या का भी अभाव हो जाता है। इस प्रकार योग के साथ लेश्या का अन्वय-व्यतिरेक देखा जाता है। अतएव यह सिद्ध हुआ कि लेश्या योगनिमित्तक है। लेश्या योगनिमित्तक होने पर भी योग के अन्तर्गत द्रव्यरूप है, योगनिमित्तक कर्मद्रव्यरूप नहीं । अगर लेश्या को कर्मद्रव्यरूप माना जाएगा तो प्रश्न होगा - लेश्या घातिकर्मद्रव्यरूप है या अघातिकर्मद्रव्यरूप ? लेश्या घातिकर्मद्रव्यरूप तो हो नहीं सकती, क्योंकि सयोगी केवली में घातिकर्मों का अभाव होने पर भी लेश्या का सद्भाव होता है। वह अघातिकर्मद्रव्य भी नहीं कही जा सकती, क्योंकि अयोगिकेवली में अघातिकर्मों का सद्भाव होने पर भी लेश्या का अभाव होता है। अतएव पारिशेष्यन्याय से लेश्या को योगान्तर्गत द्रव्य ही मानना उचित है। वे ही योगान्तर्गत द्रव्य जब तक कषायों की विद्यमानता है तब तक उनके उदय को भडकाने वाले होते हैं; क्योंकि योग के अन्तर्गत द्रव्यों में कषाय के उदय को भड़काने का सामर्थ्य देखा जाता है। लेश्या कर्मों की स्थिति का कारण नहीं है, किन्तु कषाय स्थिति के कारण हैं। जो लेश्याएँ कषायोदयान्तर्गत होती हैं, वे ही अनुभागबन्ध का हेतु हैं। नैरयिकों में समाहारादि सात द्वारों की प्ररूपणा
११२४. णेरइया णं भंते ! सव्वे समाहारा सव्वे समसरीरा सव्वे समुस्सासणिस्सासा ? गोयमा ! णो इणढे समढें । से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ णेरइया णो सव्वे समाहारा जाव णो सव्वे समुस्सासणिस्सासा?
गोयमा ! णेरइया दुविहा पण्णत्ता, तं जहा- महासरीरा य अप्पसरीरा य। तत्थ णं जे ते . महासरीरा ते णं बहुतराए पोग्गले आहारेंति बहुतराए पोग्गले परिणामेंति बहुतराए पोग्गले उस्ससंति बहुतराए पोग्गले णीससंति, अभिक्खणं आहारेंति अभिक्खणं परिणामेंति अभिक्खणं ऊससंति अभिक्खणं णीससंति।तत्थ णं जे ते अप्पसरीरा ते णं अप्पतराए पोग्गले आहारेंति अप्पतराए पोग्गले परिणामेंति अप्पतराए पोग्गले ऊससंति अप्पतराए पोग्गले णीससंति आहच्च आहारेंति आहच्च परिणामेंति आहच्च ऊससंति आहच्च णीससंति, से तेणटेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ रइया णो सव्वे समाहारा णो सव्वे समसरीरा णो सव्वे समुस्सासणीसासा १ ।
[११२४ प्र.] भगवन् ! क्या नारक सभी समान आहार वाले हैं, सभी समान शरीर वाले हैं तथा सभी समान उच्छ्वास-निःश्वास वाले होते है ?
[११२४ उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। [प्र.] भगवन् ! किस हेतु से आप ऐसा कहते हैं कि नारक भी सभी समाहार नहीं है, यावत् सम
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(क) प्रज्ञापनासूत्र मलय: वृत्ति, पत्रांक ३३०-३३१
(ख) प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनी टीका, भाग ४, पृ. ४-५