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________________ दसवाँ चरमपद] [७ देते हैं-यह रत्नप्रभापृथ्वी चरम नहीं है, क्योंकि वह तो द्रव्य की अपेक्षा एक और अखण्डरूप है। उसे चरम नहीं कहा जा सकता (चरमत्व तो सापेक्ष है, रत्नप्रभापृथ्वी से पहले कोई हो तो उसकी अपेक्षा से उसे चरम कहा जाए। मगर ऐसा कोई दूसरा नहीं, क्योंकि रत्नप्रभापृथ्वी तो एक अखण्ड और निरपेक्ष है, जिसके विषय में तुमने (गौतमस्वामी ने) प्रश्न किया है। इसी प्रकार पूर्वोक्त युक्ति के अनुसार रत्नप्रभापृथ्वी अचरम भी नहीं कही जा सकती, क्योंकि अचरमत्व अर्थात् मध्यवर्तित्व भी किसी दूसरे की अपेक्षा रखता है, इसलिए सापेक्ष है। यहाँ कोई दूसरा ऐसा है नहीं, जिसकी अपेक्षा से रत्नप्रभापृथ्वी को अचरम कहा जाए। इसके पश्चात् किये हुए बहुवचनात्मक प्रश्नों का भी भगवान् निषेधरूप में उत्तर देते हैं।- रत्नप्रभापृथ्वी न अनेक चरम है और न ही अनेक अचरमरूप है। क्योंकि पूर्वकथनानुसार जब रत्नप्रभापृथ्वी एकत्वविशिष्ट चरम और अचरम नहीं है तो बहुत्वविशिष्ट चरम-अचरम भी कैसे हो सकती है? अर्थात् रत्नप्रभापृथ्वी न तो बहुत चरम द्रव्यरूप है और न ही बहुत अचरमद्रव्यरूप है। __इसी प्रकार रत्नप्रभापृथ्वी को न तो चरमान्तप्रदेशों के रूप के कह सकते हैं और न ही अचरमान्तप्रदेशों के रूप में कह सकते हैं। क्योंकि जब रत्नप्रभापृथ्वी में चरमत्व और अचरमत्व संभव ही नहीं है, तब उसे चरमप्रदेश या अचरमप्रदेश भी नहीं कहा जा सकता। प्रश्न होता है कि रत्नप्रभापृथ्वी चरम, अचरम आदि पूर्वोक्त छह विकल्पों वाली नहीं है तो क्या है ? उसे किस रूप में कहना और समझना चाहिए ? भगवान् ने इसके उत्तर में कहा – रत्नप्रभापृथ्वी अचरम और अनेक चरमरूप (चरमाणि) है तथा चरमान्तप्रदेश और अचरमान्त प्रदेशरूप है। इसका आशय यह है कि ज एक और अखण्डरूप में विवक्षित रत्नप्रभापृथ्वी के विषय में प्रश्न किया जाए तो वह पूर्वोक्त छह भंगो में से किसी भी भंग में नहीं आ सकती, किन्तु जब रत्नप्रभापृथ्वी को असंख्यात प्रदेशों में अवगाढ और अनेक अवयवों में विभक्त मानकर प्रश्र किया जाए तो उसे अचरम और अनेक चरमरुप (चरमाणि) कहा जा सकता है। क्योंकि रत्नप्रभापृथ्वी इसी प्रकार के आकार में स्थित है। ऐसी स्थिति में इसके प्रान्तभागों में विद्यमान प्रत्येक खण्ड तथाविध-विशिष्ट । एकत्वपरिणाम परिणत हैं, उन खण्डों को अनेक चरम रूप (चरमाणि) कहा जा सकता है और जो उन प्रान्तभागों के मध्य मे बड़ा खण्ड है, उसे तथाविधएकत्वपरिणाम होने से एक मान लिया जाए तो वह अचरम है। इस प्रकार रत्नप्रभापृथ्वी प्रान्तवर्ती अनेक खण्डों और मध्यवर्ती एक महाखण्ड का सम्मिलित समुदायरूप है, ऐसा न मानने पर रत्नप्रभापृथ्वी के अभाव का प्रसंग आ जाएगा। इस प्रकार एक ही पृथ्वी को अवयव-अवयवीरूप में मान लेने पर जैसे उसे अचरम-अनेक चरम रूप (चरमाणि) अर्थात्-अखण्ड और एक निर्वचनविषय कहा जा सकता है, उसी प्रकार प्रदेशों की विवक्षा करने पर उसे 'चरमान्त अनेकप्रदेशरूपा' तथा 'अचरमान्त अनेकप्रदेशरूपा' भी कहा जा सकता है, क्योंकि इसके बाह्यखण्डों में रहे हुए प्रदेश चरमान्तप्रदेश कहलाते हैं और मध्यवर्ती एक महाखण्ड में रहे हुए प्रदेश १. प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्रांक २२९
SR No.003457
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages545
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size11 MB
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