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________________ [ प्रज्ञापनासूत्र प्ररूपणा करनी चाहिए। सौधर्मादि से लेकर यावत् अनुत्तर विमान तक की वक्तव्यता भी इसी प्रकार समझ लेनी चाहिए। ईषत्प्राग्भारापृथ्वी की वक्तव्यता भी इसी तरह (रत्नप्रभापृथ्वी के समान) कह लेनी चाहिए। लोक के विषय में भी ऐसा ही कहना चाहिए और अलोक (अलोकाकाश) के विषय में भी इसी तरह (कहना चाहिए।) विवेचना - आठ पृथ्वियों और लोकालोक की चरमाचरम सम्बन्धी वक्तव्यता - प्रस्तुत तीन सूत्रों में से प्रथम सूत्र में रत्नप्रभादि आठ पृथ्वियों का नामोल्लेख करके द्वितीय सूत्र में रत्नप्रभापृथ्वी के चरमअचरम आदि के सम्बन्ध में प्ररूपणा की गई है तथा तृतीय सूत्र में शेष पृथ्वियों, सौधर्म से अनुत्तर विमान तक के देवलोक एवं लोकालोक के चरम-अचरमादि की वक्तव्यता से सम्बन्धित अतिदेश दिया गया है। चरम, अचरम की शास्त्रीय परिभाषा - वैसे तो चरम का अर्थ अन्तिम है और अचरम का अर्थ हैजो अन्तिम न हो, मध्य में हो। परन्तु यहाँ समग्र लोक के रत्नप्रभादि विविध खण्डों तथा अलोक की अपेक्षा से चरम-अचरम आदि का विचार किया गया है। इसलिए चरमादि यहाँ पारिभाषिक शब्द हैं, इसी दृष्टि से वृत्तिकार ने इनका अर्थ किया है। चरम का अर्थ है-पर्यन्तवर्ती यानी अन्त में स्थित । चरम शब्द यहाँ सापेक्ष है, अर्थात् दूसरे की अपेक्षा रखता है। उससे कोई पहले हो, तभी किसी दूसरे को चरम कहा जा सकता है। जैसेपूर्वशरीरों की अपेक्षा से चरम (अन्तिम) शरीर (पूर्वभवों की अपेक्षा से अन्तिम भव को चरमभव) कहा जाता है। जिससे पहले कुछ न हो, उसे चरम नहीं कहा जा सकता। इसी प्रकार अचरम शब्द का अर्थ है-जो चरमअन्तवर्ती न हो. अर्थात मध्यवर्ती हो। यह पद भी सापेक्ष है, क्योंकि जब कोई अन्त में हो, तभी उसकी अपेक्ष से बीच वाले को अचरम कहा जा सकता है। जिसके आगे-पीछे दूसरा कोई न हो, उसे अचरम यानी मध्यवर्ती (बीच में स्थित) नहीं कहा जा सकता। जैसे चरम शरीर एवं तथाविध अन्य शरीरों की अपेक्षा से मध्यवर्ती शरीर को अचरम शरीर कहा जाता है। जिस प्रकार यहाँ दो प्रश्न एकवचन के आधार पर किये गए हैं, उसी प्रकार दो प्रश्न बहुवचन को लेकर किए गए हैं। 'चरिमाइं अचरिमाइं' दोनों चरम और अचरम के बहुवचनान्त रूप हैं । उनका अर्थ होता है-अनेक चरमरूप और अनेक अचरमरूप। ये चारों प्रश्न तो रत्नप्रभादि पृथ्वियों को तथाविधि एकत्वपरिणाम विशिष्ट एक द्रव्य मान कर किये गये हैं। इसके पश्चात् दो प्रश्न उसके प्रदेशों को लक्ष्य करके किए गए हैं - 'चरिमंतपदेसा, अचरिमंतपदेसा' (चरमान्तप्रदेशा अचरमान्तप्रदेशा) । अर्थ होता हैचरमरूप अन्तप्रदेशों वाली और अचरमरूप अन्तप्रदेशों वाली। इसका अर्थ हुआ क्या रत्नाप्रभा पृथ्वी चरमान्त बहुप्रदेशरूप है, अथवा अचरमान्त बहुप्रदेशरूप है? इसका स्पष्ट अर्थ हुआ-क्या अन्त के प्रदेश रत्नप्रभापृथ्वी हैं, अथवा मध्य के प्रदेश रत्नप्रभापृथ्वी हैं ? पूर्ववत् चरमान्त और अचरमान्त ये दोनों शब्द सापेक्ष हैं। न ही अकेले कोई प्रदेश चरमान्त हो सकते हैं, और न ही अचरमान्त।' पूर्वोक्त छह प्रश्नों का उत्तर-गौतम स्वामी के पूर्वोक्त प्रश्नों का उत्तर भगवान् पहले निषेधात्मकरूप से १. प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्रांक २२९
SR No.003457
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages545
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size11 MB
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