________________
१०२ ]
[प्रज्ञापनासूत्र
किया कर सकता है, अर्थात्-अनेक प्रकार के रूप धारण कर सकता है, वह वैकियशरीर है। यह शरीर देवों और नारकों को जन्म से प्राप्त होता है, पर्याप्त वायुकायिकों के भी होता है। किन्तु मनुष्य को ऋद्धि-लब्धिरूप से प्राप्त होता है। चतुर्दशपूर्वधारी मुनि किसी प्रकार के शंका-समाधानादि प्रयोजनवश योगबल से तीर्थंकर के पास जाने के लिए जिस शरीर की रचना करते हैं, वह आहारकशरीर है। शरीर में जो तेजस् (ओज, तेज या तथारूप धातु एवं पाचनादि कार्य में अग्नि) का कार्य करता है, वह तैजसशरीर है और कर्मनिर्मित जो सूक्ष्मशरीर है, वह कार्मणशरीर है। तैजस और कार्मण, ये दोनों शरीर जीव से सिद्धिप्राप्त होने से पूर्व तक कभी विमुक्त नहीं होते हैं। अनादिकाल से ये दोनों शरीर जीव के साथ जुड़े हुए हैं। पुनर्जन्म के लिए गमन करने वाले जीव के साथ भी ये दो शरीर तो अवश्य होते हैं, औदारिकादि शरीरों का निर्माण बाद में होता है। तत्पश्चात् चौबीस दण्डकों में से किसको कितने व कौन से शरीर होते हैं? इसकी चर्चा है। फिर इन पांचों शरीरों के बद्व-वर्तमान में जीव के साथ बंधे हुए तथा मुक्त-पूर्वकाल में बांध कर त्यागे हुए शरीरों तथा समुच्चय में द्रव्य, क्षेत्र, काल की अपेक्षा से उनके परिमाण की चर्चा की गई है। इसके अनन्तर नैरयिकों, भवनवासियों, एकेन्द्रियों, विकलेन्द्रियों, तिर्यंचपंचेन्द्रियों, मनुष्यों, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क, वैमानिक देवों के बद्ध-मुक्त पांचों शरीरों के परिमाण की चर्चा द्रव्य, क्षेत्र, काल की दृष्टि से की गई है। गणित विद्या की दृष्टि से यह अतीव रसप्रद है।
१.
(क) प्रज्ञापना. म. वृत्ति पत्रांक २३८-२३९, (ख) पण्णवणासुत्तं भा. २ बारहवें पद की प्रस्तावना, पृ. ८८-८९ (क) पण्णवणासुत्तं भा. १, पृ. २२३ से २२८ (ख) पण्णवणासुत्तं भा. २, बारहवें पद की प्रस्तावना, पृ.८१
२.