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पनरसमं इंदियपयं : पढमो उद्देसओ
पन्द्रहवाँ इन्द्रियपद : प्रथम उद्देशक
प्रथम उद्देशक में प्ररूपित चौवीस द्वार
९७२. संठाण १ बाहल्लं २ पोहत्तं ३ कतिपएस ४ ओगाढे ५ ।
अप्पाबहु ६ पुट्ट ७ पविट्ठ ८ विसय ९ अणगार १० आहारे ११ ॥ २०२॥
अद्दाय १२ असी १३ य मणी १४ उडुपाणे १५ तेल्ल १६ फाणिय १७ वसा १८ य । कंबल १९ थूणा २० थिग्गल २१ दीवोदहि' २२ लोग लोगे २३ - २४ य ॥२०३॥
[९७२ प्रथम उद्देशक की अर्थाधिकार गाथाओं का अर्थ - ] १. संस्थान, २. बाहल्य (स्थूलता), ३. पृथुत्व (विस्तार), ४. कति- प्रदेश (कितने प्रदेश वाली) ५. अवगाढ़, ६. अल्पबहुत्व, ७. स्पृष्ट, ८. प्रविष्ट, ९. विषय, १०. अनगार, ११. आहार, १२. आदर्श (दर्पण), १३. असि (तलवार), १४. कम्बल, २०. स्थूणा ( स्तूप या ठूंठ), २१. थिग्गल (आकाश थिग्गल - पैबन्द), २२. द्वीप और उदधि, २३. लोक और २४. अलोकः इन चौवीस द्वारों के माध्यम से इन्द्रिय-सम्बन्धी प्ररूपणा की जाएगी ॥ २०२ - २०३ ॥
विवेचन - प्रथम उद्देशक में प्ररूपित चौवीस द्वार - प्रस्तुत दो गाथाओं के द्वारा प्रथम उद्देशक में प्ररूपित इन्द्रिय-सम्बन्धी चौवीस द्वारों का नामोल्लेख किया गया है।
चौवीस द्वारों का स्पष्टीकरण - (१) संस्थानद्वार - इसमें इन्द्रियों के संस्थान आकार की प्ररूपणा है, ( २ ) बाहल्यद्वार - इसमें इन्द्रियों की स्थूलता (बहलता) यानी पिण्ड-रूपता का वर्णन है, (३) पृथुत्वद्वार- इसमें इन्द्रिय के विस्तार का निरूपण है, (४) कति प्रदेशद्वार - इसमें बताया गया हैं कि किस इन्द्रिय के कितने प्रदेश हैं, (५) अवगाढद्वार - इसमें यह वर्णन है कि कौन-सी इन्द्रिय कितने प्रदेशों में अवगाढ है। ( ६ ) अल्पबहुत्वद्वार - इसमें अवगाहनासम्बन्धी और कर्कशता सम्बन्धी अल्पबहुत्व का प्रतिपादन है, (७) स्पृष्टद्वार- इसमें स्पृष्ट- अस्पृष्ट विषयक प्ररूपणा है, (८) प्रविष्टद्वार- इसमें प्रविष्ट -'
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१.
अनेक प्रतियों में इसके बदले पाठान्तर है- दुद्धपाणे- जिसमें दुग्ध और पान ये दो द्वार पृथक् पृथक् कर दिये गए हैं । किन्तु . निशीथसूत्र (उ. १३) के पाठ के अनुसार 'उडुपाणे' पाठ ही प्रामाणिक होता है ।
२. कोई-कोई आचार्य द्वरीप और उदधि, यों दो द्वार मानते हैं ।