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________________ अठारहवाँ कायस्थितिपद] 1३६७ गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कासेणं सागरोवमसयपुहत्तं सातिरेगं ? [१२९३ प्र.] भगवन् ! सकायिक पर्याप्तक के विषय में (भी पूर्ववत्) पृच्छा है, (उसका क्या समाधान [१२९३ उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट कुछ अधिक सौ सागरोपमपृथक्त्व तक (वह सकायिक पर्याप्तकरूप में) रहता है। १२९४. पुढविक्काइयपजत्तए णं ० पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं संखेज्जाइं वासहस्साई। [१२९४ प्र.] भगवन् ! पृथ्वीकायिक पर्याप्तक जीव के विषय में (भी पूर्ववत्) पृच्छा है ? [१२९४ उ.] गौतम ! (वह) जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट संख्यात हजार वर्षों तक (पृथ्वीकायिक पर्याप्तकरूप में बना रहता है।) १२९५. एवं आऊ वि। [१२९५] इसी प्रकार अप्कायिक पर्याप्तक के विषय में भी समझना चाहिए। १२९६. तेउक्काइयपज्जत्तए णं ० पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं संखेज्जाइं राइंदियाई । [१२९६ प्र.] भगवन् ! तेजस्कायिक पर्याप्तक कितने काल तक (लगातार) तेजस्कायिक पर्याप्तक बन रहता है ? [१२९६ उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट संख्यात रात्रि-दिन तक (वह) तेजस्कायिकपर्याप्तकरूप में बना रहता है। १२९७. वाउक्काइयपज्जत्तए णं ० पुच्छा? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं संखेजाइं वाससहस्साई । [१२९७ प्र.] भगवन् ! वायुकायिक पर्याप्तक के विषय में भी (इसी प्रकार की) पृच्छा है। [१२९७ उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट संख्यात हजार वर्षों तक (वह वायुकायिक पर्याप्तपर्याय में रहता है।) १२९८. वणस्सइकाइयपजत्तए णं ० पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं संखेजाइं वाससहस्साई । [१२९८ प्र.] भगवन् ! वनस्पतिकायिक पर्याप्तक के विषय में भी (पूर्ववत्) प्रश्न है।
SR No.003457
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages545
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size11 MB
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