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अठारहवाँ कायस्थितिपद]
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गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कासेणं सागरोवमसयपुहत्तं सातिरेगं ? [१२९३ प्र.] भगवन् ! सकायिक पर्याप्तक के विषय में (भी पूर्ववत्) पृच्छा है, (उसका क्या समाधान
[१२९३ उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट कुछ अधिक सौ सागरोपमपृथक्त्व तक (वह सकायिक पर्याप्तकरूप में) रहता है।
१२९४. पुढविक्काइयपजत्तए णं ० पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं संखेज्जाइं वासहस्साई। [१२९४ प्र.] भगवन् ! पृथ्वीकायिक पर्याप्तक जीव के विषय में (भी पूर्ववत्) पृच्छा है ?
[१२९४ उ.] गौतम ! (वह) जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट संख्यात हजार वर्षों तक (पृथ्वीकायिक पर्याप्तकरूप में बना रहता है।)
१२९५. एवं आऊ वि। [१२९५] इसी प्रकार अप्कायिक पर्याप्तक के विषय में भी समझना चाहिए। १२९६. तेउक्काइयपज्जत्तए णं ० पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं संखेज्जाइं राइंदियाई ।
[१२९६ प्र.] भगवन् ! तेजस्कायिक पर्याप्तक कितने काल तक (लगातार) तेजस्कायिक पर्याप्तक बन रहता है ?
[१२९६ उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट संख्यात रात्रि-दिन तक (वह) तेजस्कायिकपर्याप्तकरूप में बना रहता है।
१२९७. वाउक्काइयपज्जत्तए णं ० पुच्छा? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं संखेजाइं वाससहस्साई । [१२९७ प्र.] भगवन् ! वायुकायिक पर्याप्तक के विषय में भी (इसी प्रकार की) पृच्छा है।
[१२९७ उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट संख्यात हजार वर्षों तक (वह वायुकायिक पर्याप्तपर्याय में रहता है।)
१२९८. वणस्सइकाइयपजत्तए णं ० पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं संखेजाइं वाससहस्साई । [१२९८ प्र.] भगवन् ! वनस्पतिकायिक पर्याप्तक के विषय में भी (पूर्ववत्) प्रश्न है।