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[ प्रज्ञापनासूत्रं
कालओ, खेत्तओ अणंता लोगा, असंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा, ते णं पोग्गलपरियट्टा आवलियाए असंखेजइभागे।
[१२८८ प्र.] भगवन् ! वनस्पतिकायिक जीव कितने काल तक लगातार वनस्पतिकायिक पर्याय में रहते हैं ? ___ [१२८८ उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक, उत्कृष्ट अनन्तकाल तक (वे) वनस्पतिकायिक पर्याययुक्त बने रहते हैं। (वह अनन्तकाल) कालत:- अनन्त उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी परिमित एवं क्षेत्रतः अनन्त लोक प्रमाण या असंख्यात पुद्गलपरावर्त समझना चाहिए। वे पुद्गलपरावर्त्त आवलिका के असंख्यातवें भाग-प्रमाण
१२८९. तसकाइए णं भंते ! तसकाइए त्ति ० पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं दो सागरोवमसहस्साई संखेजवासअब्भइयाई । [१२८९ प्र.] भगवन् ! त्रसकायिक जीव त्रसकायिकरूप में कितने काल तक रहता है ?
[१२८९ उ.] गौतम ! वह जघन्य अन्तर्मुहूर्त काल तक और उत्कृष्ट संख्यातवर्ष अधिक दो हजार सागरोपम तक (त्रसकायिकरूप में लगातार बना रहता है।)
१२९०. अकाइए णं भंते ! ० पुच्छा ? गोयमा ! अकाइए सादीए अपज्जवसिए । [१२९० प्र.] भगवन् ! अकायिक कितने काल तक अकायिकरूप में बना रहता है ? [१२९० उ.] गौतम ! अकायिक सादि-अनन्त होता है। १२९१. सकाइयअपजत्तए णं ० पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेण विउक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं । [१२९१ प्र.] भगवन् ! सकायिक अपर्याप्त कितने काल तक सकायिक अपर्याप्तक रूप में लगातार रहता
[१२९१ उ.] गौतम ! (वह) जघन्य भी अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त तक (सकायिक अपर्याप्त रूप में लगातार रहता है।)
१२९२. एवं जाव तसकाइयअपज्जत्तए । [१२९२] इसी प्रकार (अप्कायिक अपर्याप्तक से लेकर) त्रसकायिक अपर्याप्तक तक समझना चाहिए। १२९३. सकाइयपज्जत्तए णं ० पुच्छा ?