SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 444
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बीसवाँ अन्तक्रियापद] [ ४२३ १४२१.[१] णेरइए णं भंते ! णेरइएहितो अणंतरं उव्वट्टित्ता मणूसेसु उववजेजा ? गोयमा ! अत्थेगइए उववजेजा, अत्यंगइए णो उववजेजा। [१४२१-१ प्र.] भगवन् ! नारक, जीव नारकों में से अद्वर्तन (निकल) कर क्या सीधा मनुष्यों में उत्पन्न हो जाता है ? [उ.] गौतम ! (उनमें से) कोई (मनुष्यों में) उत्पन्न होता है और कोई उत्पन्न नहीं होता है । [२] जे णं भंते ! उववजेज्जा से णं केवलिपण्णत्तं धम्मं लभेजा सवणयाए ? गोयमा !जहाणं पंचेंदियतिरिक्खजोणिएसु(सु. १४२०[२-७]) जावजेणंभंते ! ओहिणाणं उप्पाडेज्जा से णं संचाएजा मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइत्तए ? गोयमा ! अत्थेगइए संचाएज्जा, अत्थेगइए णो संचाएज्जा । [१४२१-२ प्र.] भगवन् ! जो (नारकों में से अनन्तरागत जीव मनुष्यों में) उत्पन्न होता है, (क्या) वह केवलि-प्रज्ञप्त धर्मश्रवण प्राप्त कर लेता है ? ' [१४२१-२ उ.] गौतम ! जैसे पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिकों में (आकर उत्पन्न जीव) के विषय में धर्मश्रवण से (लेकर) अवधिज्ञान प्राप्त कर लेता है, तक कहा है, वैसे ही यहाँ कहना चाहिए। (विशेष प्रश्न यह है-) भगवन् ! जो (मनुष्य) अवधिज्ञान प्राप्त कर लेता है, (क्या) वह मुण्डित होकर अगारत्व से अनगारधर्म में प्रवजित हो सकता है ? [उ.] गौतम ! (उनमें से) कोई प्रव्रजित हो सकता है और कोई प्रव्रजित नहीं हो सकता है। [३]जेणं भंते ! संचाएजा मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइत्तए से णं मणपज्जवणाणं उप्पाडेज्जा? गोयमा ! अत्थेगइए उप्पाडेजा, अत्थेगइए णो उप्पाडेजा। [१४२१-३ प्र.] भगवन् ! जो (मनुष्य) मुण्डित होकर अगारित्व से अनगारधर्म में प्रव्रजित होने से समर्थ है, (क्या) वह मनः पर्यवज्ञान को उपार्जित कर सकता है ? [उ.] गौतम ! (उनमें से) कोई (मनःपर्यवज्ञान को) उपार्जित कर सकता है (और) कोई उपार्जित नहीं कर सकता है । [४] जे णं भंते ! मणपज्जवणाणं उप्पाडेजा से णं केवलणाणं उप्पाडेजा? गोयमा ! अत्थेगइए उप्पाडेजा, अत्थेगइए णो उप्पाडेजा । [१४२१-४ प्र.] भगवन् ! जो (मनुष्य) मनःपर्यवज्ञान को उपार्जित कर लेता है, (क्या) वह
SR No.003457
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages545
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy