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[प्रज्ञापनासूत्रं [१४०३ प्र.] भगवन् ! द्वीन्द्रिय जीव सम्यग्दृष्टि होते हैं, मिथ्यादृष्टि होते हैं, अथवा सम्यग्मिथ्यादृष्टि होते हैं?
___ [१४०३ उ.] गौतम ! द्वीन्द्रिय जीव सम्यग्दृष्टि भी होते हैं, मिथ्यादृष्टि भी होते हैं किन्तु सम्यग्मिथ्यादृष्टि नहीं होते। इसी प्रकर चतुरिन्द्रिय जीवों तक (प्ररूपणा करना चाहिए)।
१४०४. पंचेंदियतिरिक्खजोणिय मणुस्सा वाणमंतर-जोतिसिय-वेमाणिया य सम्मट्ठिी वि, मिच्छट्ठिी वि, सम्मामिच्छद्दिट्ठी वि।।
[१४०४.] पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक, मनुष्य, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देव सम्यग्दृष्टि भी होते हैं, मिथ्यादृष्टि भी होते हैं और मिश्र (सम्यग्मिथ्या) दृष्टि भी होते हैं।
१४०५. सिद्धाणं पुच्छा। गोयमा ! सिद्धा णं सम्मट्ठिी, णो मिच्छट्टिी णो सम्मामिच्छट्ठिी।
॥पण्णवणाए भगवतीए एगूणवीसइमं सम्मत्तपयं समत्तं॥ [१४०५ प्र.] भगपन् ! सिद्ध (मुक्त) जीव सम्यग्दृष्टि होते हैं, मिथ्यादृष्टि होते हैं या सम्यग्मि,यादृष्टि होते हैं?
[१४०५ उ.] गौतम ! सिद्ध जीव सम्यग्दृष्टि ही होते हैं, वे न तो मिथ्यादृष्टि होते हैं, और न सम्यग्मिथ्यादृष्टि होते हैं।
विवेचन - चौवीस दण्डकवर्ती जीवों और सिद्धों में सम्यक्त्व की प्ररूपणा - प्रस्तुत छह सूत्रों में नैरयिकों से लेकर वैमानिक देवों तक तथा सिद्धजीव सम्यग्दृष्टि होते हैं, मिथ्यादृष्टि होते हैं या मिश्रदृष्टि ? इसका विचार किया गया है।
निष्कर्ष - समुच्चय जीव, नैरयिक, भवनवासी देव, तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय, मनुष्य, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों में तीनों ही दृष्टियाँ पाई जाती हैं। विकलेन्द्रिय सम्यग्मिथ्यादृष्टि नहीं होते, सिद्धजीव सम्यग्दृष्टि ही होते हैं। पृथ्वीकायादि एकेन्द्रिय जीव मिथ्यादृष्टि ही होते हैं।
एक ही जीव में एक साथ तीनों दृष्टियाँ नहीं होती - जिन जीवों में तीनों दृष्टियाँ बताई हैं, वे एक जीव में एक साथ एक समय में नही होती, परस्पर विरोधी होने के कारण एक जीव में, एक समय में एक ही दृष्टि हो सकती है। अभिप्राय यह है कि जैसे कोई जीव सम्यग्दृष्टि होता है, कोई मिथ्यादृष्टि और कोई सम्यग्मिथ्यादृष्टि होता है, उसी प्रकार कोई नारक देव, मनुष्य या पंचेन्द्रियतिर्यञ्च सम्यग्दृष्टि होता है, तो कोई मिथ्यादृष्टि होता है, तथैव कोई सम्यग्मिथ्यादृष्टि होता है। एक समय में एक जीव में एक ही दृष्टि होती हैं, तीनों दृष्टियाँ नहीं।
॥प्रज्ञापनासूत्र : उन्नीसवाँ सम्यक्त्वपद समाप्त ॥
१. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक ३९३