________________
बीसवाँ अन्तक्रियापद ]
का नारक भी बलदेवत्व प्राप्त कर सकता है ।
- सप्तम द्वार ॥ ७ ॥
विवेचन - बलदेवत्व - प्राप्ति की विचारणा- चक्रवर्तिपद प्रात्ति के समान बलदेवपद - प्राप्ति का कथन समझना चाहिए । अर्थात् रत्नप्रभापृथ्वी के नारक तथा चारों प्रकार के देव अपने-अपने भवों से उद्वर्त्तन करके सीधे कोई (अमुक योग्यता से सम्पन्न ) बलदेवपद प्राप्त कर सकते हैं, कोई (अमुक योग्यता से रहित ) नहीं । किन्तु यहाँ विशेषता यह है कि शर्कराप्रभापृथ्वी का नारक भी अनन्तर उद्धर्त्तन करके बलदेवपद प्राप्त कर सकता है।
[ ४४३
अष्टम :
वासुदेवत्वद्वार
१४६५. एवं वासुदेवत्तं दोहिंतो पुढवीहिंतो य अणुत्तरोववातियवज्जेहिंतो, सेसेसु णो इणट्ठे समट्ठे । दारं ८ ॥
[१४६५] इसी प्रकार दो पृथ्वियों ( रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा पृथ्वी) से, तथा अनुत्तरौपपातिक देवों को छोड़कर शेष वैमानिकों से वासुदेवत्व प्राप्त हो सकता है, शेष जीवों में यह अर्थ समर्थ नहीं अर्थात् ऐसी योग्यता नहीं होती ।
विवेचन - वासुदेवपदप्राप्ति की विचारणा प्रस्तुत द्वार में वासुदेवत्वप्राप्ति के सम्बन्ध में विचारणा की गई है । वासुदेवपद केवल रत्नप्रभा एवं शर्कराप्रभा पृथ्वी के नारकों से तथा पांच अनुत्तरविमान के देवों को छोड़कर शेष वैमानिक देवों से अनन्तर उद्वर्त्तन करके मनुष्यभव में उत्पन्न होने वाले जीवों को प्राप्त हो सकता है, शेष भवों से आए हुए जीव वासुदेव नहीं हो सकते हैं।
नवम : माण्डलिकत्वद्वार
-
१४६६. मंडलियत्तं अहेसत्तमा- तेउ वाउवज्जेहिंतो । दारं ९ ॥
[१४६६] माण्डलिकपद, अधः सप्तमपृथ्वी के नारकों तथा तेजस्कायिक, वायुकायिक भवों को छोड़कर (शेष सभी भवों से अनन्तर उद्वर्त्तन करके मनुष्यभव में आए हुए जीव प्राप्त कर सकते हैं ।)
- नवम द्वार ॥ ९ ॥
१. प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनी टीका भा. ४, पृ. ५६७-५६८
२.
प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनी टीका भाग ४, पृष्ठ ५६८
३.
पण्णवणासुत्तं (प्रस्तावनादि) भा. २, पृ. ११५
विवेचन- माण्डलिकपदप्राप्ति का निषेध - केवल सप्तम नरक तथा तेजस्काय एवं वायुकाय में से निकलकर जन्म लेने वाले मनुष्य माण्डलिकपद प्राप्त नहीं कर सकते हैं ।