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[प्रज्ञापनासूत्र
[उ.] गौतम ! यह अर्थ (बात) समर्थ (शक्य) नहीं है । १४६१. एवं जाव अहेसत्तमापुढविणेरइए ।
[१४६१] इसी प्रकार (वालुकाप्रभापृथ्वी के नारक से ले कर) अधःसप्तमपृथ्वी के नारक तक (के विषय में समझ लेना चाहिए ।)
१४६२. तिरिय-मणुएहितो पुच्छा । गोयमा ! णो इणढे समढे ।
[१४६२ प्र.] (तिर्यञ्चयोनिक और मनुष्यों के विषय में) पृच्छा है (कि ये) तिर्यञ्चयोनिकों और मनुष्यों से (निकल कर सीधे क्या चक्रवर्ती पद प्राप्त कर सकते हैं ?)
[उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । १४६३. भवणवइ-वाणमंतर-जोइसिय-वेमाणिएहितो पुच्छा। गोयमा ! अत्थेगइए लभेजा, अत्थेगइए नो लभेजा। दारं ६ ॥
[१४६३ प्र.] (इसी प्रकार) भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देव के सम्बन्ध में प्रश्न है कि (क्या वे अपने-अपने भवों से च्यवन कर सीधे चक्रवर्तीपद पा सकते हैं ?) [उ.] गौतम ! (इनमें से) कोई चक्रवर्तीपद प्राप्त कर सकता है (और) कोई प्राप्त नहीं कर सकता है
___ -छठा द्वार ॥ ६ ॥ विवेचन - चक्रवर्तीपद-प्राप्ति की विचारणा - प्रस्तुत सप्तम द्वार में चक्रवर्तीपद किसको प्राप्त होता है, किसको नहीं ? इस विषय में विचारणा की गई है ।
निष्कर्ष - चक्रवर्तीपद के योग्य जीव प्रथम नरक के नारक और चारों प्रकार के देवों में से अनन्तर मनुष्यभव मे जन्म लेने वाले है । शेष जीव (द्वितीय से सप्तम नरक तक तथा तिर्यञ्चों एवं मनुष्यों मे से उत्पन्न होने वाले) नहीं । तीर्थकरत्व-प्राप्ति की योग्यता के विषय में जो कारण प्रस्तुत किये गये थे, वे ही कारण चक्रवर्तित्व प्राप्ति की योग्यता के हैं। सप्तम : बलदेवत्वद्वार
१४६४. एवं बलदेवत्तं पि । णवरं सक्करप्पभापुढविणेरइए वि लभेजा । दारं ७॥ [१४६४] इसी प्रकार बलदेवत्व के विषय में भी समझ लेना चाहिए । विशेष यह है कि शर्कराप्रभापृथ्वी
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(क) प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक ४०३
(ख) पण्णवणासुत्तं (प्रस्तावनादि) भा. २, पृ. ११५