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________________ ४४२ ] [प्रज्ञापनासूत्र [उ.] गौतम ! यह अर्थ (बात) समर्थ (शक्य) नहीं है । १४६१. एवं जाव अहेसत्तमापुढविणेरइए । [१४६१] इसी प्रकार (वालुकाप्रभापृथ्वी के नारक से ले कर) अधःसप्तमपृथ्वी के नारक तक (के विषय में समझ लेना चाहिए ।) १४६२. तिरिय-मणुएहितो पुच्छा । गोयमा ! णो इणढे समढे । [१४६२ प्र.] (तिर्यञ्चयोनिक और मनुष्यों के विषय में) पृच्छा है (कि ये) तिर्यञ्चयोनिकों और मनुष्यों से (निकल कर सीधे क्या चक्रवर्ती पद प्राप्त कर सकते हैं ?) [उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । १४६३. भवणवइ-वाणमंतर-जोइसिय-वेमाणिएहितो पुच्छा। गोयमा ! अत्थेगइए लभेजा, अत्थेगइए नो लभेजा। दारं ६ ॥ [१४६३ प्र.] (इसी प्रकार) भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देव के सम्बन्ध में प्रश्न है कि (क्या वे अपने-अपने भवों से च्यवन कर सीधे चक्रवर्तीपद पा सकते हैं ?) [उ.] गौतम ! (इनमें से) कोई चक्रवर्तीपद प्राप्त कर सकता है (और) कोई प्राप्त नहीं कर सकता है ___ -छठा द्वार ॥ ६ ॥ विवेचन - चक्रवर्तीपद-प्राप्ति की विचारणा - प्रस्तुत सप्तम द्वार में चक्रवर्तीपद किसको प्राप्त होता है, किसको नहीं ? इस विषय में विचारणा की गई है । निष्कर्ष - चक्रवर्तीपद के योग्य जीव प्रथम नरक के नारक और चारों प्रकार के देवों में से अनन्तर मनुष्यभव मे जन्म लेने वाले है । शेष जीव (द्वितीय से सप्तम नरक तक तथा तिर्यञ्चों एवं मनुष्यों मे से उत्पन्न होने वाले) नहीं । तीर्थकरत्व-प्राप्ति की योग्यता के विषय में जो कारण प्रस्तुत किये गये थे, वे ही कारण चक्रवर्तित्व प्राप्ति की योग्यता के हैं। सप्तम : बलदेवत्वद्वार १४६४. एवं बलदेवत्तं पि । णवरं सक्करप्पभापुढविणेरइए वि लभेजा । दारं ७॥ [१४६४] इसी प्रकार बलदेवत्व के विषय में भी समझ लेना चाहिए । विशेष यह है कि शर्कराप्रभापृथ्वी १. (क) प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक ४०३ (ख) पण्णवणासुत्तं (प्रस्तावनादि) भा. २, पृ. ११५
SR No.003457
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages545
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size11 MB
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