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बीसवाँ अन्तक्रियापद ]
वनस्पतिकायिक जीव
द्वि-त्रि- चतुरिन्द्रिय जीव
पंचेन्द्रियतिर्यञ्च
मोक्ष
मन: पर्यायज्ञान
मोक्ष
मोक्ष
मोक्ष
मोक्ष
तीर्थकरपद
मनुष्य
वाणव्यन्तर देव
ज्योतिष्क देव
समस्त वैमानिक देव
छठा चक्रिद्वार
१४५९. रयणप्भापुढविणेरइए णं भंते! अणंतरं उव्वट्टित्ता चक्कवट्टितं लभेज्जा ?
गोमा ! अथेइ लभेज्जा, अत्थेगइए णो लभेज्जा ।
सेकेणट्ठेणं भंते ! एवं वुच्चइ ?
गोमा ! जहा रयणप्पभापुढविणेरइयस्स तित्थगरत्ते (सु. १४४४) ।
[१४५९ प्र.] भगवन् ! रत्नप्रभापृथ्वी का नैरयिक (अपने भव से) उद्वर्त्तन करके क्या चक्रवर्तीपद • प्राप्त कर सकता है ?
[ ४४१
[उ.] गौतम ! (इनमें से कोई (नारक) चक्रवर्तीपद प्राप्त करता है, कोई प्राप्त नहीं करता है । [प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि कोई ( रत्नप्रभापृथ्वी का नारक) चक्रवर्तित्व प्राप्त कर सकता है और कोई प्राप्त नहीं करता है ?
[उ.] गौतम ! जैसे (सू. १४४४ में) रत्नप्रभापृथ्वी के नारक को तीर्थकरत्व (प्राप्त होने, न होने के कारणों का कथन किया है, उसी प्रकार उसके चक्रपर्तीपद प्राप्त होने न होने का कथन समझना चाहिए ।)
"
१.
१४६०. सक्करप्पभापुढविणेरइए अनंतरं उव्वट्टित्तं लभेजा ?
गोयमा ! णो इणट्ठे समट्ठे ।
[१४६० प्र.] (भगवन्) ! शर्कराप्रभापृथ्वी का नारक (अपने भव से) उद्वर्त्तन करके सीधा चक्रवर्तीपद पा सकता है ?
पण्णवणासुत्तं (प्रस्तावना आदि) भा. २. पृ. ११५