________________
४४० ]
[प्रज्ञापनासूत्र निकाचित या उदयादि अवस्था के उद्रेक से रहित न होना ।
ये सभी शब्द कर्मसिद्धान्त के पारिभाषिक शब्द हैं ।।
आशय - प्रस्तुत प्रसंग में इनसे आशय यही है कि रत्नप्रभादि तीन नरकपृथ्वी के जिस नारक ने पूर्वकाल में तीर्थकर नामकर्म का बन्ध किया है और बांधा हुआ वह कर्म उदय में आया है, वही नारक तीर्थकरपद प्राप्त करता है । जिसने पूर्वकाल में तीर्थकर नामकर्म का बंध ही नहीं किया, अथवा बंध करने पर भी जिसके उसका उदय नहीं हुआ, वह तीर्थकरपद प्राप्त नहीं करता ।
अन्तिम चार नरकपृथ्वियों के नारकों की उपलब्धि - पंक, धूप, तमः और तमस्तमःपृथ्वी के नारक अपने-अपने भव से निकल कर तीर्थकरपद प्राप्त नहीं कर सकते, वे क्रमशः अन्तक्रिया, सर्वविरति, देशविरति चारित्र तथा सम्यक्त्व को प्राप्त कर सकते हैं ।
असुरकुमारदि से वनस्पतिकायिक तक - के जीवन अपने-अपने भवों से उद्तन करके सीधे तीर्थकरपद प्राप्त नहीं कर सकते, किन्तु अन्तक्रिया (मोक्षप्राप्ति) कर सकते हैं। वसुदेवचरित में नागकुमारों में से उवृत्त हो कर सीधे ऐरवत क्षेत्र में इसी अवसर्पिणीकाल में चौबीसवें तीर्थकर होने का कथन है। इस विषय में क्या रहस्य है, यह केवली ही जानते हैं।
नीचे इस द्वार की तालिका दी जाती है, जिससे जीव का विकासक्रम जाना जा सके। मनुष्य का अनन्तर पूर्वभव
मनुष्यों में सम्भवित उपलब्धि रत्नप्रभा से वालुकाप्रभा तक के नारक
तीर्थकरपद पंकप्रभा के नारक
मोक्ष धूमप्रभा के नारक
सर्वविरति तमःप्रभा के नारक
देशविरति तमस्तमःप्रभा के नारक
सम्यक्त्व समस्त भवनपति देव
मोक्ष पृथ्वीकायिक-अप्कायिक जीव
मोक्ष तेजस्कायिक-वायुकायिक जीव (मनुष्यभव नहीं) तिर्यञ्चभव में धर्मश्रवण
१. २. ३.
प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्र ४०२-४०३ प्रज्ञापनासूत्र प्रमेयबोधिनी टीका भा. ४, पृ. ५५५ प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्र ४०३