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बीसवाँ अन्तक्रियापद ]
करता, इत्यादि (सभी) बातें रत्नप्रभापृथ्वी के नारक के ( विषय में सू. १४४४ में उक्त कथन के) समान जाननी चाहिए ?
१४५८. एवं जाव सव्वट्ठसिद्धगदेवे । दारं ५ ॥
[१४५८] इसी प्रकार (ईशानकल्प के देव से लेकर) सर्वार्थसिद्ध विमान के देव तक (सभी वैमानिक देवों के लिये समझना चाहिए ।)
विवेचन - तीर्थकरपद - प्राप्ति की विचारणा प्रस्तुत पंचम द्वार में नारक आदि मर कर अन्तर के बिना सीधे मनुष्य में जन्म लेकर तीर्थकरपद प्राप्त कर सकते हैं या नहीं ? इसकी विचारणा की गई है । साथ ही यह बताया गया है कि यदि वह जीव तीर्थकरपद प्राप्त नहीं कर सकता, तो विकासक्रम में क्या प्राप्त कर सकता है ?
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सार - इस समस्त पद का निष्कर्ष यह है कि केवल नारकों और वैमानिक देवों में से मर कर सीधा मनुष्य होने वाला जीव ही तीर्थकरपद प्राप्त कर सकता है, अन्य नहीं ।"
१.
२.
'बद्धाई' आदि पदों के विशेषार्थ - 'बद्धाइं' - सुइयों के ढेर को सूत के धागे से बांधने की तरह आत्मा के साथ (तीर्थकर नाम - गोत्र आदि ) कर्मो का साधारण संयोग होना 'बद्ध' है ।‘पुट्ठाई’-जैसे उन सूइयों के ढेर को अग्नि से तपा कर एक बार धन से कूट दिया जाता है, तब उनमें परस्पर जो सघनता उत्पन्न हो जाती है, उसी प्रकार आत्मप्रदेशों और कर्मों में परस्पर सघनता उत्पन्न होना 'स्पृष्ट' होना है। 'निधत्ताई'उद्वर्त्तनाकरण और अपवर्त्तनाकरण के सिवाय शेष करण जिसमें लागू न हो सकें, इस प्रकार से कर्मों को व्यवस्थापित करना 'निधत्त' कहलाता है । 'कडाइ' अर्थात् कृत । कृत का अभिप्राय है कर्मों को निकाचित कर लेना, अर्थात् समस्त कारणों के लागू होने के योग्य न हो, इस प्रकार से कर्मों को व्यवस्थापित करना । 'पट्ठवियाई' - मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रस, बादर, पर्याप्त, सुभग, आदेय एवं यशः कीर्त्ति नामकर्म के उदय के साथ व्यवस्थापित होना प्रस्थापित है । 'निविट्ठाई' - बद्ध कर्मों का तीव्र अनुभाव - जनक के रूप में स्थित होना निविष्ट का अर्थ है । 'अभिनिविट्ठाई' - वही कर्म जब विशिष्ट, विशिष्टतर, विलक्षण अध्यवसायभाव के कारण अति तीव्र अनुभावजनक के रूप में व्यवस्थित होता है, तब अभिनिविष्ट कहलाता है । 'अभिसमन्नागयाई' - कर्म का उदय के अभिमुख होना 'अभिसमन्वागत' कहलाता है । 'उदिण्णाई' - कर्मों का उदय में आना, उदयप्राप्त होना उदीर्ण कहलाता है । अर्थात् कर्म जब अपना फल देने लगता है, तब उदयप्राप्त या उदीर्ण कहलाता है । 'नो उपसंताई'-कर्म का उपशान्त न होना । उपशान्त न होने के यहाँ दो अर्थ हैं- (१) कर्मबन्ध का सर्वथा अभाव को प्राप्त न होना, (२) अथवा कर्मबन्ध (बद्ध) हो चुकने पर भी
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पण्णवणासुतं (मूलपाठ- टिप्पण) भा. १, पृ. ३२५-६२६
पण्णवणासुतं (प्रस्तावना आदि) भा. २, पृ. ११४