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________________ ४३८ ] [प्रज्ञापनासूत्र [उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है, (किन्तु वह) केवलिप्ररूपित धर्म का श्रवण प्राप्त कर सकता है १४५३. एवं वाउक्काइए वि। [१४५३] इसी प्रकार वायुकायिक के विषय में भी समझ लेनी चाहिए। १४५४. वणस्सइकाइए णं ० पुच्छा । गोयमा ! णो इणढे समठे, अंतकिरियं पुण करेजा । । [१४५४ प्र.] वनस्पतिकायिक जीव के विषय में पृच्छा है (कि क्या वह वनस्पतिकायिकों में से निकल कर तीर्थकरत्व प्राप्त कर सकता है ?) [उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है, किन्तु वह अन्तक्रिया कर सकता है। १४५५. वेइंदिय-तेइंदिय-चउरिदिए णं ० पुच्छा । गोयमा ! णो इणढे समठे, मणपजवणाणं पुण उप्पाडेजा। [१४५५ प्र.] द्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रिय-चतुरिन्द्रिय के विषय में भी यही प्रश्न है (कि क्या ये अपने-अपने भवों में से उवृत्त हो कर सीधे तीर्थकरत्व प्राप्त कर सकते हैं ?) [उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है, (किन्तु ये) मनःपर्यवज्ञान का उपार्जन कर सकते हैं। १४५६. पंचेंदियतिरिक्खजोणिय-मणूस-वाणमंतर-जोइसिए णं ० पुच्छा । गोयमा ! णो इणढे समढे, अंतकिरियं पुण करेजा। [१४५६ प्र.] अब पृच्छा है (कि क्या) पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक, मनुष्य, वाणव्यन्तर एवं ज्योतिष्कदेव अपने-अपने भवों में उद्तर्तन करके सीधे तीर्थकरत्व प्राप्त कर सकते हैं ? [उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है, किन्तु वह अन्तक्रिया (मोक्ष प्राप्त) कर सकता है । १४५७. सोहम्मगदेवे णं भंते ! अणंतरं चयं चइत्ता तित्थगरत्तं लभेज्जा? गोयमा ! अत्थेगइए लभेजा, अत्थेगइए णो लभेजा, एवं जहा रयणप्पभापुढविणेरइए (सु. १४४४)। [१४५७ प्र.] भगवन् ! सौधर्मकल्प का देव, अपने भव से च्यवन करके सीधा तीर्थकरत्व प्राप्त कर सकता है ? [उ.] गौतम ! (उनमें से) कोई (सौधर्मकल्प का देव तीर्थकरत्व) प्राप्त करता है और कोई प्राप्त नहीं
SR No.003457
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages545
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size11 MB
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