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________________ बीसवाँ अन्तक्रियापद] [४३७ में से निकल कर सीधा तीर्थकरत्व प्राप्त कर सकता है ?) . [उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है, किन्तु वह विरति प्राप्त कर सकता है । १४४८. तमापुढविणेरइए णं ० पुच्छा गोयमा ! णो इणढे समढे विरयाविरइं पुण लभेजा। [१४४८ प्र.] (इसी प्रकार का) प्रश्न तम:पृथ्वी के नारक के सम्बन्ध में है । [उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है, किन्तु वह (तम:पृथ्वी का नारक) विरताविरति को प्राप्त कर सकता है । १४४९. अहेसत्तमाए ० पुच्छा। गोयमा ! णो इणढे समठे सम्मत्तं पुण लभेजा। [१४४९ प्र.] (अब) अधःसप्तमपृथ्वी के (नैरयिक के विषय में) पृच्छा (कि क्या वह तीर्थकरत्व प्राप्त कर सकता है ?) [उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है, किन्तु वह सम्यक्त्व प्राप्त कर सकता है । १४५०. असुरकुमारे णं ० पुच्छा। गोयमा ! णो इणढे समढे, अंतकिरियं पुण लभेजा । [१४५० प्र.] इसी प्रकार की पुच्छा असुरकुमार के विषय में है (कि क्या वह असुरकुमारों में से : निकल कर सीधा तीर्थकरत्व प्राप्त कर सकता है ?) [उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है, किन्तु वह अन्तक्रिया (मोक्षप्राप्ति) कर सकता है । १४५१. एवं निरंतरं जाव आउक्काइए। [१४५१] इसी प्रकार (असुरकुमार की भाँति) लगातार अप्कायिक तक (अपने-अपने भव से उद्वर्तन कर सीधे तीर्थकरत्व प्राप्त नहीं कर सकते, किन्तु अन्तक्रिया कर सकते हैं ।) १४५२. तेउक्काइए णं भंते ! तेउक्काइएहितो अणंतरं उव्वट्टित्ता उववजेजा (त्ता) तित्थगरत्तं लभेज्जा? गोयमा ! णो इणढे समठे, केवलिपण्णत्तं धम्मं लभेजा सवणयाए। [१४५२ प्र.] भगवन् ! तेजस्कायिक जीव तेजस्कायिकों में से उद्वृत्त होकर बिना अन्तर के (मनुष्य भव में) उत्पन्न हो कर क्या तीर्थकरत्व प्राप्त कर सकता है ?
SR No.003457
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages545
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size11 MB
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