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[प्रज्ञापनासूत्र
से तेणढेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ अत्थेगइए लभेज्जा अत्थेगइए णो लभेज्जा।
[१४४४ प्र.] भगवन् ! (क्या) रत्नप्रभापृथ्वी का नारक रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिकों से निकल कर सीधा तीर्थकरत्व प्राप्त करता है ?
[उ.] गौतम ! उनमें से कोई तीर्थकरत्व प्राप्त करता है और कोई प्राप्त नहीं कर पाता है ।
[प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहते है कि (रत्नप्रभापृथ्वी का नारक) सीधा (मनुष्य भव में उत्पन्न होकर) कोई तीर्थकरत्व प्राप्त कर लेता है और कोई प्राप्त नहीं कर पाता है ?
[उ.] गौतम ! जिस रत्नप्रभापृथ्वी के नारक ने (पहले कभी) तीर्थकर नाम-गोत्र कर्म बद्ध किया है, स्पृष्ट किया है, निधत्त किया है, प्रस्थापित, निविष्ट और अभिनिविष्ट किया है, अभिसमन्वागत (सम्मुख आगत) है, उदीर्ण (उदय में आया) है, उपशान्त नहीं हुआ है, वह रत्नप्रभापृथ्वी का नैरयिक रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिकों में से उदवृत्त होकर सीधा (मनुष्यभव में उत्पन्न होकर) तीर्थकरत्व प्राप्त कर लेता है, किन्तु जिस रत्नप्रभापृथ्वी के नारक के तीर्थकर नाम-गोत्र कर्म बद्ध नहीं होता यावत् उदीर्ण नहीं होता, उपशान्त होता है, वह रत्नप्रभापृथ्वी का नारक रत्नप्रभापृथ्वी से निकल कर सीधा तीर्थकरत्व प्राप्त नहीं कर सकता है ।
इसलिए हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि कोई नैरयिक तीर्थकरत्व प्राप्त करता है और कोई प्राप्त नहीं कर पाता है ।
१४४५. एवं जाव वालुयप्पभापुढविणेरइएहितो तित्थगरत्तं लभेज्जा ।
[१४४५] इसी प्रकार यावत् वालुकाप्रभापृथ्वी के नैरयिकों में से (निकल कर कोई नारक मनुष्यभव प्राप्त करके) सीधा तीर्थकरत्व प्राप्त कर लेता है और (कोई नारक नहीं प्राप्त करता है ।)
१४४६. पंकप्पभापुढविणेरइए णं भंते ! पंकप्पभापुढविणेरइएहितो अणंतरं उव्वट्टित्ता तित्थगरत्तं लभेजा?
गोयमा ! णो इणठे, अंतकिरियं पुण करेजा।
[१४४६ प्र.] भगवन् ! पंकप्रभापृथ्वी का नारक पंकप्रभापृथ्वी के नैरयिकों में से निकल कर क्या सीधा तीर्थकरत्व प्राप्त कर लेता है ?
[उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है, किन्तु वह अन्तक्रिया कर सकता है । १४४७. धूमप्पभापुढविणेरइए णं ० पुच्छा। गोयमा ! णो इणढे समढे विरतिं पुण लभेजा। [१४४७ प्र.] धूमप्रभापृथ्वी के नैरयिक के सम्बन्ध में प्रश्न है (कि क्या वह धूमप्रभापृथ्वी के नारकों