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________________ बीसवाँ अन्तक्रियापद] [४३५ __ पृथ्वीकायिकों की उत्पत्ति आदि - पृथ्वीकायिक जीव नारकों और देवों में सीधे उत्पन्न नहीं होते, क्योकि उनमें विशिष्ट मनोद्रव्य सम्भव नहीं होता, इस कारण तीव्र संक्लेश एवं विशुद्ध अध्यवसाय नहीं हो सकता । मनुष्यों में उत्पन्न होने पर ये अन्तक्रिया भी कर सकते हैं । ___ भवनपति देवों की उत्पत्ति आदि - असुरकुमारदि १० प्रकार के भवनपति देव पृथ्वी-वायु-वनस्पति में उत्पन्न होते हैं । उधर ईशान (द्वितीय) देवलोक तक उनकी उत्पत्ति होती है । इन देवों में उत्पन्न होने पर वे केवलिप्रज्ञप्त धर्मश्रवण नहीं कर सकते । शेष सब बातें नैरयिकों के समान समझ लेनी चाहिए ।। तेजस्कायिक, वायुकायिक का मनुष्यों में उत्पत्तिनिषेध - ये दोनों सीधे मनुष्यों में उत्पन्न नहीं हो सकते, क्योंकि इनके परिणाम क्लिष्ट होने से इनके मनुष्यगति, मनुष्यानुपूर्वी और मनुष्यायु का बन्ध होना असम्भव होता है । ये तिर्यञ्चपंचेन्द्रियों में उत्पन्न होकर श्रवणन्द्रिय प्राप्त होने से केवलिप्रज्ञप्त धर्मश्रवण प्राप्त कर सकते हैं, किन्तु संक्लिष्ट परिणाम होने से कैवलिकीबोधि (धर्म) का बोध प्राप्त नहीं कर सकते । विकलेन्द्रियों की उत्पत्ति-प्ररुपणा - द्वि-त्रि-चतुरिन्द्रिय जीव, पृथ्वीकायिकों के समान देवों और नारकों को छोड़ कर शेष समस्त स्थानों में उत्पन्न हो सकते हैं । ये तथाविध भवस्वभाव के कारण अन्तक्रिया नहीं कर पाते, किन्तु मनुष्यों में उत्पन्न होने पर अनगार बन कर मनःपर्यवज्ञान तक भी प्राप्त कर सकते हैं । पंचम : तीर्थकरद्वार १४४४. रयणप्पभापुढविणेरइए णं भंते ! रयणप्पभापुढविणेरइहिंतो अणंतरं उव्वट्टित्ता तित्थगरत्तं लभेजा? गोयमा ! अत्थेगइए लभेजा, अत्थेगइए णो लभेजा। से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ अत्थेगइए लभेजा अत्थेगइए णो लभेजा ? गोयमा ! जस्स णं रयप्पभापुढविणेरइयस्स तित्थगरणाम-गोयाइं बद्वाइं पढ़ाई निधत्ताई कडाई पट्ठवियाई णिविट्ठाइं अभिनिविट्ठाइं अभिसमण्णागयाइं उदिण्णाइं णो उवसंताई भवंति से णं रयणप्पभापुढविणेरइए रयणप्पभापुढविणेरइएहितो अणंतरं उव्वट्टित्ता तित्थगरत्तं लभेजा, जस्स णं रयप्पभापुढविणेरइयस्स तित्थगरणाम-गोयाई णो बद्वाइं जाव णो उदिण्णाई उवसंताई भवंति से णं रयणप्पभापुढविणेरइएहितो अणंतरं उव्वट्टित्ता तित्थगरत्तं णो लभेजा। वही, पत्र ४०१ वही, पत्र ४०० वही, पत्र ४०१ वही, पत्र ४०२
SR No.003457
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages545
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size11 MB
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