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________________ सोलहवाँ प्रयोगपद] [२३३ व्यापार सत्यमनःप्रयोग है। (२) असत्यमनःप्रयोग- सत्य से विपरीत असत्य है । यथा जीव नहीं है, अथवा जीव एकान्त सत्-रूप है, इत्यादि कुविकल्प करने में तत्पर मन असत्यमन है, उसका प्रयोग-व्यापार असत्यमनःप्रयोग है। (३) सत्यमृषामनःप्रयोग- जो सत्य और असत्य, उभयरूप चिन्तन-तत्पर हो, वह सत्यमृषामन है। जैसे - किसी वन में बड़, पीपल, खैर, पलाश, अशोक आदि अनेक जाति के वृक्ष हैं, किन्तु अशोक वृक्षों की बहुलता होने से यह सोचना कि यह अशोकवन है। कतिपय अशोक वृक्षों का सद्भाव होने से यह सोचना सत्य है, किन्तु उनके अतिरिक्त उस वन में अन्य बड़, पीपल आदि का भी सद्भाव होने से ऐसा सोचना असत्य है। किन्तु व्यवहारनय की अपेक्षा से ऐसा सोचना सत्यासत्य कहलाता है, परमार्थ (निश्चयनय) की दृष्टि से तो ऐसा सोचना असत्य है; क्योंकि वस्तु जैसी है, वैसी नहीं सोची गई है।(४) असत्यामृषामन:प्रयोग- जो सत्य भी न हो और असत्य भी न हो, ऐसा मनोव्यापार असत्यामृषामन:प्रयोग है। विप्रतिपत्ति (शंका या विवाद) होने पर वस्तुतत्त्व को सिद्धि की इच्छा से सर्वज्ञ के मतानुसार विकल्प करता है। यथाजीव है, वह सत्-असत् रूप है। यह चिन्तन सत्य-परिभाषित होने से आराधक है और सत्यमनःप्रयोग है। जो विप्रतिपत्ति होने पर वस्तुतत्त्व की प्रतिष्ठा (स्थापना) करने की इच्छा होने पर भी सर्वज्ञमत के विरूद्ध विकल्प करता है। जैसे- जीव नहीं है अथवा जीव एकान्त नित्य है, इत्यादि। यह चिन्तन विराधक होने से असत्य है। किन्तु वस्तु की सिद्धि की इच्छा के बिना भी स्वरूपमात्र का पर्यालोचनपरक चिन्तन करना असत्यामृषामनःप्रयोग है। जैसे-किसी ने चिन्तन किया - देवदत्त से घड़ा लाना है, या अमुक व्यक्ति से गाय मांगना है, इत्यादि। यह चिन्तन स्वरूपमात्र पर्यालोचनपरक होने से न तो यथारूप सत्य है, न ही मिथ्या है; इसलिए व्यवहारनय की दृष्टि से इसे असत्यामृषा कहा जाता है। अगर किसी को ठगने या धोखा देने की बुद्धि से ऐसा चिन्तन किया जाता है तो वह असत्य के अन्तर्गत है, अन्यथा सरलभाव से वस्तुस्वरूपपर्यालोचन करना सत्य में समाविष्ट है। ऐसे असत्यामृषामन का प्रयोग असत्यामृषामन:प्रयोग है। (५-८) मन के चार प्रकार के इन प्रयोगों की तरह वचनप्रयोग भी चार प्रकार के हैं, अन्तर यही है कि वहाँ मन का प्रयोग है, यहाँ वाणी का प्रयोग है। वे चार इस प्रकार हैं - (५) सत्यवाक्प्रयोग, (६) असत्यवाक्प्रयोग, (७) सत्यामृषावाक्प्रयोग और (८) असत्यामृषावाक्प्रयोग। (९) औदारिकशरीरकाय-प्रयोग - औदारिक आदि का लक्षण पहले बता चुके हैं। जो शरीर उदार-स्थूल हो, उसे औदारिकशरीर कहते हैं। काय कहते हैं- पुद्गलों के समूह को अथवा अस्थि आदि के उपचय को। इन दोनों लक्षणों से युक्त काय औदारिकशरीर रूप होने से औदारिकशरीरकाय कहलाता है। उसका प्रयोग औदारिकशरीरकाय-प्रयोग है। यह तिर्यंचों और पर्याप्तक मनुष्यों के होता है। (१०) औदारिकमिश्रशरीरकाय-प्रयोग- जो काय औदारिक हो और कार्मणशरीर के साथ मिश्र हो, वह औदारिकमिश्रशरीर कहलाता है, ऐसे शरीरकाय के प्रयोग को औदारिकमिश्रशरीरकाय-प्रयोग कहते हैं। औदारिकशरीर के साथ कार्मणशरीर होने पर भी इसका नाम 'कार्मणमिश्रशरीर' न रखकर 'औदारिकमिश्र' रखा है, उसके तीन कारण हैं - (१) उत्पत्ति की अपेक्षा से औदारिक की प्रधानता होने से, (२) कादाचित्क होने से तथा (३) सन्देहरहित अभीष्ट पदार्थ का बोध कराने का हेतु होने से। अतएव औदारिकशरीरधारी मनुष्य, पंचेन्द्रियतिर्यञ्च या पर्याप्त बादर वायुकायिकजीव वैक्रियलब्धि से सम्पन्न होकर वैक्रिया करता है, तब औदारिकशरीर की ही प्रारम्भिकता और प्रधानता होने के कारण वैक्रियमिश्र न कहलाकार वह औदारिकमिश्र
SR No.003457
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages545
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size11 MB
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