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________________ ग्यारहवाँ भाषापद] [ ९९ इयं स्त्री - यह स्त्री । ५. पुरूषवचन - पुल्लिंगवाचक शब्द, जैसे - अयं पुमान्-यह पुरुष । ६. नपुंसकवचननपुंसकत्ववाचक शब्द, जैसे-इदं कुण्डम् - यह कुण्ड । ७. अध्यात्मवचन - मन में कुछ और सोच कर ठगने की बुद्धि से कुछ और कहना चाहता हो, किन्तु अचानक मुख से वही निकल पड़े, जो सोचा हो। ८. उपनीतवचन - प्रशंसावाचक शब्द, जैसे – 'यह स्त्री अत्यन्त सुशीला है।' ९. अपनीतवचन - निन्दात्मक वचन, जैसे - यह कन्या कुरूपा है । १०. उपनीतापनीतवचन - पहले प्रशंसा करके फिर निन्दात्मक शब्द कहना, जैसे - यह सुन्दरी है, किन्तु दुःशीला है। ११.अपनीतोपनीतवचन - पहले निन्दा करके, फिर प्रशंसा करने वाला शब्द कहना, जैसे - यह कन्या यद्यपि कुरूपा है, किन्तु है सुशीला । १२. अतीतवचन - भूतकालद्योतक वचन, जैसे - अकरोत् (किया)। १३. प्रत्युत्पन्नवचन - वर्तमानकालवाचक वचन, जैसे - करोति (करता है)। १४. अनागतवचन - भविष्यत्कालवाचक शब्द, जैसे - करिष्यति (करेगा)। १५. प्रत्यक्षवचन - प्रत्यक्षसूचक शब्द, जैसे – 'यह घर है।' और १६. परोक्षवचन - परोक्षसूचक शब्द, जैसे - वह यहाँ रहता था। ये सोलह ही वचन यथावस्थित - वस्तुविषयक हैं, काल्पनिक नहीं, अतः जब कोई इन वचनों को सम्यक्रूप से उपयोग करके बोलता है, तब उसकी भाषा प्रज्ञापनी' समझनी चाहिए, मृषा नहीं। चार प्रकार की भाषा के भाषक आराधक या विराधक ? - प्रस्तुत चारों प्रकार की भाषाओं को जो जीव सम्यक् प्रकार से उपयोग रख कर प्रवचन (संघ) पर आई हुई मलिनता की रक्षा करने में तत्पर होकर बोलता है, अर्थात् - प्रवचन (संघ) को निन्दा और मलिनता से बचाने के लिए गौरव-लाघव का पर्यालोचन करके चारों में से किसी भी प्रकार की भाषा बोलता हुआ साधुवर्ग आराधक होता है, विराधक नहीं। किन्तु जो उपयोगपूर्वक बोलने वाले से पर - भिन्न है तथा असंयत (मन-वचन-काय के संयम से रहित) है, जो सावधव्यापार (हिंसादि पापमय प्रवृत्ति) से विरत नहीं (अविरत) है, जिसने अपने भूतकालिक पापों को मिच्छा मि दुक्कडं (मेरा दुष्कृत मिथ्या हो), देकर तथा प्रायश्चित आदि स्वीकार करके प्रतिहत (नष्ट) नहीं किया है तथा जिसने भविष्यकालसम्बन्धी पाप न हों, इसके लिए पापकर्मों का प्रत्याख्यान नहीं किया है, ऐसा जीव चाहे सत्यभाषा बोले या मृषा, सत्यामृषा या असत्यामृषा में से कोई भी भाषा बोले, वह आराधक नहीं, विराधक है। चारों भाषाओं के भाषकों में अल्पबहुत्व की यथार्थता - प्रस्तुत चारों भाषाओं के भाषकों के अल्पबहुत्व की चर्चा करते हुए सबसे कम सत्यभाषा के भाषक बताए हैं, इसका कारण यह है कि सम्यक् उपयोग (ध्यान) पूर्वक सर्वज्ञमतानुसार वस्तुतत्त्व की स्थापना (प्रतिपादन) करने की बुद्धि (दृष्टि) से जो बोलते हैं, वे ही सत्यभाषक हैं, जो पृच्छाकाल में बहुत विरले ही मिलते हैं। सत्यभाषकों से सत्यामृषाभाषक असंख्यातगुणे इसलिए हैं कि लोक में बहुत-से इस प्रकार के सच-झूठ जैसे-तैसे बोलने वाले मिलते हैं। उनमें १. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक २६७ २. प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्रांक २६८
SR No.003457
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages545
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size11 MB
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