________________
अठारहवाँ कायस्थितिपद]
[३६१ सिद्धजीव की कायस्थिति सादि-अनन्त - सिद्ध जीव सादि-अनन्त होता है। सिद्धपर्याय की आदि है, अन्त नहीं। सिद्धपर्याय अक्षय है। क्योंकि रागादि दोष ही जन्ममरण के कारण हैं, जो सिद्ध-जीव में नही होते; वे रागद्वेष के कारणभूत कर्मों का सर्वथा क्षय कर चुकते हैं। ____ अपर्याप्त नारक आदि की कायस्थिति - नारक आदि जीवों की जो समग्र स्थिति है, उसमें से अपर्याप्त अवस्था का एक अन्तर्मुहूर्त कम कर देने से पर्याप्त अवस्था की भवस्थिति होती है। पर्याप्त अवस्था की जो भवस्थिति है, वही पर्याप्त नारक की कायस्थिति भी है। तृतीय इन्द्रियद्वार
१२७१. सइंदिए णं भंते ! सइंदिए त्ति कालओ केवचिरं होइ ?
गोयमा ! सइंदिए दुविहे पण्णत्ते । तं जहा- अणाईए वा अपजवसिए १ अणाईए वा सपज्जवसिए २।
[१२७१ प्र.] भगवन् ! सेन्द्रिय (इन्द्रिय सहित) जीव सेन्द्रिय रूप में कितने काल तक रहता है ? . [१२७१ उ.] गौतम ! सेन्द्रिय जीव दो प्रकार के कहे गये हैं - १. अनादि-अनन्त और २. अनादिसान्त।
१२७२. एगिदिए णं भंते ! एगिदिए त्ति कालओ केवचिरं होइ ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं अणंतं कालं वणस्सइकालो । [१२७२ प्र.] भगवन् ! एकेन्द्रिय जीव एकेन्द्रियरूप में कितने काल तक रहता है ?
[१२७२ उ.] गौतम ! (वह) जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अनन्तकाल-वनस्पतिकालपर्यन्त (एकेन्द्रिय रूप में रहता है।)
१२७३. बेइंदिए णं भंते ! बेइंदिए त्ति कालओ केवचिरं होइ ? गोयमा ! जहणणेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं संखेनं कालं। [१२७३ प्र.] भगवन् ! द्वीन्द्रिय जीव द्वीन्द्रियरूप में कितने काल तक रहता है ?
[१२७३ उ.] गौतम ! (वह) जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट संख्यातकाल तक (द्वीन्द्रियरूप में रहता है।)
१२७४. एवं तेइंदिय-चउरिदिए वि। [१२७४] इसी प्रकार त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय की त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय रूप में अवस्थिति के विषय
१.
प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक ३७४ से ३७७ तक