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[प्रज्ञापनासूत्रं
दो प्रकार के होते हैं- द्रव्यप्राण और भावप्राण । द्रव्यप्राण दस है - पांच इन्द्रियाँ, तीन बल, उच्छ्वास-नि:श्वास
और आयु। भावप्राण- ज्ञान, दर्शन, वीर्य और सुख, ये ४ हैं। संसारी जीवों में आयुःकर्म का अनुभवरूप प्राणधारण सदैव रहता है। संसारियों की ऐसी कोई भी अवस्था नहीं है, जिसमें आयुकर्म का अनुभव न हो। सिद्ध जीव द्रव्यप्राणों से रहित होने पर भी ज्ञानादिरूप भावप्राणों के सद्भाव से सदैव जीवित रहता है। इस कारण संसारी अवस्था में और मुक्तावस्था में भी सर्वत्र जीवनपर्याय है, अतएव जीव में जीवनपर्याय सर्वकालभावी
गति की अपेक्षा जीवों की कायस्थिति - नारक की कायस्थिति - जघन्य दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट ३३ सागरोपम तक नारक नारकपर्याय से युक्त रहता है। यही नारक की कायस्थिति है। क्योंकि नारकभव का स्वभाव ही ऐसा है कि एक बार नरक से निकला हुआ जीव अगले ही भव में फिर नरक में उत्पन्न नहीं होता। इस कारण उनकी जो भवस्थिति का परिमाण है, वही उनकी कायस्थिति का परिमाण है।
तिर्यञ्च नर की कायस्थिति - इसकी जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अनन्तकाल तक को कायस्थिति इसलिए है कि जब कोई देव, मनुष्य या नारक तिर्यचयोनिक नर के रूप में उत्पन्न होता है और वहाँ अन्तर्मुहूर्तपर्यन्त रह कर फिर देव, मनुष्य या नारक भव में जन्म ले लेता है, उस अवस्था में जघन्य कायस्थिति अन्तर्मुहूर्त की होती है। यद्यपि तिर्यञ्च की एकभवसम्बन्धी स्थिति तो अधिक से अधिक तीन पल्योपम की है, उससे अधिक नहीं, तथापि जो तिर्यञ्च तिर्यञ्चभव को त्याग कर लगातार तिर्यञ्चभव में ही उत्पन्न होते रहते हैं, बीच में किसी अन्य भव में उत्पन्न नहीं होते, वे अनन्तकाल तक तिर्यञ्च ही बने रहते हैं। उस अनन्तकाल का परिमाण यहाँ क्षेत्र और काल की दृष्टि से बताया गया है- काल की अपेक्षा से अनन्त उत्सर्पिणियाँ और अवसर्पिणियाँ व्यतीत हो जाती हैं, फिर भी विर्यञ्चयोनिक तिर्यञ्चयोनिक ही बना रहता है। उस अनन्तकाल का यह परिमाण असंख्यात पुद्गलपरावर्तन समझना चाहिए। आवलिका के असंख्यातवें भाग में जितने समय होते हैं, उतने असंख्यात पुद्गलपरावर्त समझने चाहिए। तिर्यग्योनिक की यह कायस्थिति वनस्पतिकायिक की अपेक्षा से है, उससे भिन्न तिर्यञ्चों की अपेक्षा से नहीं, क्योंकि वनस्पतिकायिक के सिवाय अन्य तिर्यञ्चों की कायस्थिति इतनी नहीं होती।
तिर्यचयोनिक स्त्री की कायस्थिति - इसकी कायस्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक की और उत्कृष्ट पृथक्त्व करोड़ पूर्व अधिक तीन पल्योपम तक की है, क्योंकि संज्ञोपंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों और मनुष्यों की कायस्थिति अधिक से अधिक आठ भवों की है। असंख्यात वर्ष की आयु वाले जीव मृत्यु के पश्चात् अवश्य देवलोक में उत्पन्न होते हैं, तिर्यचयोनि में नही; अतएव सात भव करोड़ पूर्व की आयु वाले समझना चाहिए और आठवाँ अन्तिम भव देवकुरू आदि मे। इस तरह पृथक्त्व करोड़ पूर्व अधिक तीन पल्योपम समझना चाहिए।
देव देवियों की कायस्थिति - देवों और देवियों की कायस्थिति भवस्थिति के अनुसार ही समझनी चाहिए। देवयिों की उत्कृष्ट कायस्थिति पचपन पल्योपम की है, यह ऐशान देवियों की अपेक्षा से कही गयी है, अन्य देवियों की अपेक्षा से नहीं।