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सोलहवाँ प्रयोगपद
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चतु:संयोगी मिलकर ८० भंग होते हैं ।' वाणव्यन्तरादि देवों की विभाग से प्रयोगप्ररूपणा
१०८४. वाणमंतर-जोइसिय-वेमाणिया जहा असुरकुमारा (सु. १०७९)।
[१०८४] वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों के प्रयोग (सू. १०७९ में उक्त) असुरकुमारों के प्रयोग के समान समझना चाहिए ।
विवेचन - वाणव्यन्तरादि देवों की विभाग से प्रयोगप्ररूपणा - प्रस्तुत (सूत्र. १०८४) में वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों की प्ररूपणा असुरकुमारों के अतिदेशपूर्वक की गई हैं। पांच प्रकार का गतिप्रपात
१०८५. कतिविहे णं भंते ! गतिप्पवाए पण्णत्ते ?
गोयमा ! पंचविहे पण्णत्ते । तं जहा- पओगगती १ ततगती २ बंधणच्छेयणगती ३ उववायगती ४ विहायगती ५ ।.
[१०८५ प्र.] भगवन् ! गतिप्रपात कितने प्रकार का कहा गया है ?
[१०८५ उ.] गौतम ! (गतिप्रपात) पांच प्रकार का कहा गया है, वह इस प्रकार- (१) प्रयोगगति, (२) ततगति, (३) बन्धनछेदनगति, (४) उपपातगति और (५) विहायोगति ।
विवेचन - पांच प्रकार का गतिप्रपात - प्रस्तुत सूत्र में प्रयोगगति आदि पांच प्रकार के गतिप्रपात का प्रतिपादन किया गया है।
गतिप्रपात की व्याख्या - गमन करना, गति या प्राप्ति है। वह प्राप्ति दो प्रकार की है- देशान्तरविषयक और पर्यायान्तरविषयक । दोनों में गति शब्द का प्रयोग देखा जाता है। यथा- 'देवदत्त कहाँ गया है ? पत्तन को गया' तथा 'कहते ही वह कोप को प्राप्त हो गया ।' जैसे- 'परमाणु एक समय में एक लोकान्त से अपर लोकान्त (तक) को जाता है' तथा उन-उन अवस्थान्तरों को प्राप्त होता है। अत: यहां गति का अर्थ है- एक देश से दूसरे देश को प्राप्त होना। अथवा एक पर्याय को त्याग कर दूसरे पर्याय को प्राप्त होना। गति का प्रपात गतिप्रपात कहलाता है।
प्रयोगगति- विशेष व्यापार रूप प्रयोग के पन्द्रह प्रकार इसी पद में पहले कहे जा चुके हैं। प्रयोग रूप गति प्रयोगगति है। यह देशान्तरप्राप्ति रूप है, क्योंकि जीव के द्वारा प्रेरित सत्यमन आदि के पुद्गल थोड़ी या बहुत दूर देशान्तर तक गमन करते हैं ।
१. प्रज्ञापनासूत्र, मलय. वृत्ति, पत्रांक ३२५
प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक ३२७-३२८