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________________ २५०] [प्रज्ञापनासूत्र ततगति- विस्तीर्ण गति ततगति कहलाती है। जैसे- जिनदत्त ने किसी ग्राम के लिए प्रस्थान किया है, किन्तु अभी तक उस ग्राम तक पहुँचा नहीं है, बीच रास्ते में है और एक-एक कदम आगे बढ़ रहा है। इस प्रकार की देशान्तरप्राप्ति रूप गति ततगति है। यद्यपि कदम बढ़ाना जिनदत्त के शरीर का प्रयोग ही है, इस कारण इस गति को भी प्रयोगगति के अन्तर्गत माना जा सकता है, तथापि इसमें विस्तृतता की विशेषता होने से इसका प्रयोगगति से पृथक् कथन किया गया है। इसी प्रकार आगे भी समझ लेना चाहिए । बन्धनछेदनगति- बन्धन का छेदन होना बन्धनछेदन है और उससे होने वाली गति बन्धनछेदन गति है। यह गति जीव के द्वारा विमुक्त (छोड़े हुए) शरीर की, अथवा शरीर से च्युत (बाहर निकले हुए) जीव की होती है। कोश के फटने से एरण्ड के बीज की जो ऊर्ध्वगति होती है, वह एक प्रकार की विहायोगति है, बन्धनछेदगति नहीं, ऐसा टीकाकार का अभिमत है। उपपातगति- उपपात का अर्थ है- प्रादुर्भाव । वह तीन प्रकार का है- क्षेत्रोपपात, भवोपपात और नोभवोपपात । क्षेत्र का अर्थ है- आकाश, जहाँ नारकादि प्राणी, सिद्ध और पुद्गल रहते हैं। भव का अर्थ है - कर्म का संपर्क से होने वाले जीव के नारकादि पर्याय। जिसमें प्राणी कर्म के वशवर्ती होते हैं उसे भव कहते है। भव से अतिरिक्त अर्थात्- कर्मसम्पर्कजनित नारकत्व आदि पर्यायों से रहित पुद्गल अथवा सिद्ध नोभव हैं। उक्त दोनों (तथारूप पुद्गल और सिद्ध) पूर्वोक्त भव के लक्षण से रहित हैं। इस प्रकार की उपपात रूप गति उपपातगति कहलाती है। विहायोगति- विहायस् अर्थात् आकाश में गति होना विहायोगति है । गतिप्रपात के प्रभेद-भेद एवं उनके स्वरूप का निरूपण १०८६. से किं तं पओग्गती ? पओगगती पण्णरसविहा पण्णत्ता । तं जहा- सच्चमणप्पओगगती जाव कम्मगसरीरकायप्पओगगती । एवं जहा पओगो भणिओ तहा एसा वि भाणियव्वा । [१०८३ प्र.] (भगवन् !) वह प्रयोगगति क्या हैं ? [१०८३ उ.] गौतम ! प्रयोगगति पन्द्रह प्रकार की कही है। वह इस प्रकार- सत्यमनः-प्रयोगगति यावत् कार्मणशरीरकायप्रयोगगति। जिस प्रकार प्रयोग (पन्द्रह प्रकार का) कहा गया है, उसी प्रकार यह (गति) भी (पन्द्रह प्रकार की) कहनी चाहिए । १०८७. जीवाणं भंते ! कतिविहा पओगगती पण्णत्ता? गोयमा ! पण्णरसविहा पण्णत्ता । तं जहा- सच्चमणप्पओगगती जाव कम्मासरीरकायप्पओगगती। [१०८७ प्र.] भगवन् ! जीवों की प्रयोगगति कितने प्रकार की कही गई है ? [१०८७ उ.] गौतम ! (वह) पन्द्रह प्रकार की कही गई है, वह इस प्रकार-सत्यमन:- प्रयोगगति
SR No.003457
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages545
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size11 MB
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