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ग्यारहवाँ भाषापद]
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किया गया था। अत: इन दस सूत्रों में भी परोक्षरूप से भाषा से सम्बन्धित कुछ विशेष बातों की प्ररुपणा की गई है। इस दससूत्री पर से फलित होता है कि भाषा दो प्रकार की होती है - एक सम्यक् प्रकार से उपयुक्त (उपयोग वाले) संयत की भाषा और दूसरी अनुपयुक्त (उपयोगशून्य) असंयत जन की भाषा । जो पूर्वापरसम्बन्ध को समझ कर एवं श्रुतज्ञान के द्वारा अर्थों का विचार करके बोलता है, वह सम्यक् प्रकार से उपयुक्त कहलाता है। वह जानता है कि मैं यह बोल रहा हूँ, किन्तु जो इन्द्रियों की अपटुता (अविकास) के कारण अथवा बात आदि के विषम या विकृत हो जाने से, चैतन्य का विघात हो जाने से विक्षिप्तचित्तता, उन्माद, पागलपन या नशे की दशा में पूर्वापरसम्बन्ध नहीं जोड़ सकता, अतएव जैसे-तैसे मानसिक कल्पना करके बोलता है, वह अनुपयुक्त कहलाता है। उस स्थिति में वह यह भी नहीं जानता कि मै क्या बोल रहा हूँ? क्या खा रहा हूँ? कौन मेरे माता-पिता हैं? मेरे स्वामी का घर कौनसा है ? तथा मेरे स्वामी का पुत्र कौनसा है ? अत: ऐसी अनुपयुक्त दशा (मन्द या विकृत चैतन्यावस्था) में वह जो कुछ भी बोलता है, वह भाषा सत्य नहीं है, ऐसा शास्त्रकार का आशय प्रतीत होता है। यही बात उष्ट्रादि के सम्बन्ध में समझनी चाहिए।'
'मन्द कुमार, मन्द कुमारिका' की भाषा की व्याख्या - बालक आदि भी बोलते देखे जाते हैं, परन्तु उनकी भाषा, पूर्वोक्त चार भेदों में से कौन-सी है: इसी शंका को लेकर श्री गौतम स्वामी के ये प्रश्न हैं। मन्द कुमार का अर्थ - सरल आशय वाला, नवजात शिशु या अबोध नन्हा बच्चा, जिसका बोध (समझ) अभी परिपक्व नहीं है, जो अभी तुतलाता हुआ बोलता है, जिसे पदार्थों का बहुत ही कम ज्ञान है। इसी प्रकार की मन्द कुमारिका भी अबोध शिशु है । इस प्रकार के अबोध शिशु के सम्बन्ध में प्रश्न है कि जब वह भाषायोग्य पुद्गलों को ग्रहण करके एवं उन्हें भाषा के रूप में परिणत करके वचन रूप में उत्सर्ग करता है, तब क्या उसे मालूम रहता है कि मैं यह बोल रहा हूँ, या मैं यह खा रहा हूँ, या यह मेरे माता-पिता हैं, अथवा यह मेरे स्वामी का घर है, या मेरे स्वामी का पुत्र है? भगवान् कहते हैं - सिवाय संज्ञी के, ऐसा होना शक्य नहीं है । यद्यपि वह अबोध शिशु भाषा और मन की पर्याप्ति से पर्याप्त है, फिर भी उसका मन अभी अपटु (अविकसित) है। मन अपटुता के कारण उसका क्षयोपशम भी मन्द होता है। श्रुतज्ञानावरणकर्म का क्षयोपशम प्राय: मनोरुप करण की पटुता के आश्रय से उत्पन्न होता है, यही शास्त्रसम्मत एवं लोकप्रत्यक्ष है।
संज्ञी की व्याख्या - यहाँ संज्ञी शब्द का अर्थ समनस्क अभिप्रेत नहीं है, किन्तु संज्ञा से युक्त है। संज्ञा का अर्थ है - अवधिज्ञान, जातिस्मरणज्ञान या मन की विशिष्ट पटुता । जो शिशु या जो उष्ट्रादि शैशवास्था में होते हुए भी इस प्रकार की विशिष्ट संज्ञा से युक्त (संज्ञी) होते हैं, वे तो इन बातों को जानते हैं। एकवचनादि तथा स्त्रीवचनादि से युक्त भाषा की प्रज्ञापनिता का निर्णय
८४९. अह भंते ! मणुस्से महिसे आसे हत्थी सीहे वग्घे वगे दीविए अच्छे तरच्छे परस्सरे रासभे
१. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक २५२-२५३ २. वही, मलय. वृत्ति, पत्रांक २५२-२५३