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तेरसमं परिणामपयं
तेरहवाँ परिणामपद
- प्राथमिक + यह प्रज्ञापनासूत्र का तेरहवाँ 'परिणामपद' है। + 'परिणाम' शब्द के यहाँ दो अर्थ अभिप्रेत हैं- (१) किसी भी द्रव्य का सर्वथा विनाश या सर्वथा
अवस्थान न होकर एक पर्याय से दूसरे पर्याय (अवस्था) में जाना परिणाम है अथवा (२) पूर्ववर्ती सत्पर्याय की अपेक्षा से विनाश और उत्तरवर्ती असत्पर्याय की अपेक्षा से प्रादुर्भाव होना परिणाम है।' प्रस्तुत पद में जीव और अजीव दोनों के परिणामों का विचार किया गया है। भारतीय दर्शनों में सांख्य आदि दर्शन परिणामवादी हैं, जबकि न्याय आदि दर्शन परिणामवादी नहीं हैं। धर्म और धर्मो का अभेद मानने वाले दार्शनिक परिणामवाद को स्वीकार करते हैं और जो दार्शनिक धर्म और धर्मो का आत्यन्तिक भेद मानते हैं, उन्होंने परिणामवाद को नहीं माना। किसी भी वस्तु का सर्वथा विनाश नहीं हो जाता, किन्तु उसका रूपान्तर या अवस्थान्तर होता है। पूर्वरूप का नाश होता है, तो उत्तररूप का उत्पाद होता है, यही परिणामवाद का मूलाधार है। इसीलिए जैनदर्शन के मूर्धन्य ग्रन्थ तत्त्वार्थसूत्र में बताया- 'तद्भाव : परिणाम :' (अर्थात्- उसका होना, यानी स्वरूप में स्थित रहते हुए उत्पन्न तथा नष्ट होना परिणाम है। (इस दृष्टि से मनुष्यादि गति, इन्द्रिय, योग, लेश्या, कषाय, आदि विभिन्न अपेक्षाओं से जीव चाहे जिस रूप में या अवस्था (पर्याय) में उत्तन्न या विनष्ट होता हो उसमें आत्मत्व अर्थात् मूल जीवद्रव्यत्व ध्रुव रहता है। इसी प्रकार अजीव का अपने मूल स्वरूप में रहते हुए विभिन्न रूपान्तरों या अवस्थान्तरों में परिणमन होना अजीव-परिणाम है। प्रस्तुत पद में इसी परिणामिनित्यता का अनुसरण करते हुए सर्वप्रथम जीव के परिणामों के भेद-प्रभेद बताए हैं, तत्पश्चात् नारकादि चौबीस दण्डकों में उनका विचार किया गया है। तदनन्तर अजीव के परिणामों के भेद-प्रभेदों की गणना की है। अजीवपरिणामों में यहाँ सिर्फ पुद्गल के परिणामों की गणना प्रस्तुत की गई हैं, धर्मास्तिकायादि अरूपी द्रव्यों के परिणामों की नहीं है। सम्भव है, अजीवपरिणामों में अगुरुलघु परिणाम (जो कि एक ही प्रकार का बताया गया है) में धर्म, अधर्म, आकाश, काल इन अरूपी द्रव्यों के परिणाम का समावेश किया हो।
प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्रांक २८४ (क) पण्णवणासुत्तं भा. २, परिमाणपद की प्रस्तावना पृ. ९३ (ख) द्वयी चेयं नित्यता कूटस्थनित्यता परिणामिनित्यता च । तत्र कूटस्थनित्यता पुरुषस्य, परिणामिनित्यिता गुणानाम् ।-पातं. भाष्य ४, ३३ (क) प्रज्ञापना. म. वृ., पत्रांक २८९ (ख) पण्णवणासुत्तं भा. १, पृ. २३०-२३१
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