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________________ अठारहवाँ कायस्थितिपद] [३९७ नहीं है। पन्द्रहवाँ भाषकद्वार १३७४. भासए णं ० पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं एवं समयं, उक्कोसेणं अंतोमुहुत्तं। [१३७४ प्र.] भगवन् ! भाषक जीव कितने काल तक भाषकरूप में रहता है ? [१३७४ उ.] गौतम ! जघन्य एक समय तक और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त तक (भाषकरूप में रहता है।) १३७५. अभासए णं? गोयमा ! अभासए तिविहे पण्णत्ते । तं जहा- अणाईए वा अपजवसिए १ अणाईए वा सपज्जवसिए २ सादीए वा सपजवसिए ३।तत्थ णंजे से सादीए सपजवसिए से जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं वणप्फइकालो । दारं १५॥ [१३७५ प्र.] भगवन् ! अभाषक जीव अभाषकरूप में कितने काल तक रहता है ?, _[१३७५ उ.] गौतम ! अभाषक तीन प्रकार के कहे गये हैं- (१) अनादि-अपर्यवसित, (२) अनादिसपर्यवसित और (३) सादि-सपर्यवसित। उनमें से जो सादि-सपर्यवसित हैं, वे जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट वनस्पतिकालपर्यन्त (अभाषकरूप में रहते हैं)। - पन्द्रहवाँ द्वार ॥१५॥ विवेचन-पन्द्रहवाँ भाषकद्वार - प्रस्तुत दो सूत्रों (सू. १३७४-१३७५) में भाषक और अभाषक जीव के स्वपर्याय में अवस्थान का कालमान प्रतिपादित किया गया है। भाषक का कालमान- यहाँ भाषक का अवस्थानकाल निरन्तर जघन्य एक समय तक और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त तक जो बताया गया है वह, वचनयोगी की अपेक्षा से समझना चाहिए । १. दण्डे प्रथमे समये कपाटमथ चोत्तरे तथा समये । मन्थानमस्थ तृतीय लोकव्यापी चतुर्थे तु ॥१॥ संहरति पंचमे त्वन्तराणि मन्थानमथ तथा षष्ठे । सप्तमके तु कपाटं संहरति तोऽष्टमे दण्डम् ॥ २॥ औदारिकप्रयोक्ता प्रथमाष्टमसमयोरसाविष्टः । मिश्रौदारिकयोक्ता सप्तम-षष्ठ-द्वितीयेषु ॥३॥ कार्मणशरीरयोगी चतुर्थके पंचमे तृतीये च ॥ समयत्रयेऽपि तस्मिन् भवत्यनाहारको नियमात् ॥४॥ २. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक ३९४ -प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक ३९३
SR No.003457
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages545
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size11 MB
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