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अठारहवाँ कायस्थितिपद]
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नहीं है। पन्द्रहवाँ भाषकद्वार
१३७४. भासए णं ० पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं एवं समयं, उक्कोसेणं अंतोमुहुत्तं। [१३७४ प्र.] भगवन् ! भाषक जीव कितने काल तक भाषकरूप में रहता है ? [१३७४ उ.] गौतम ! जघन्य एक समय तक और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त तक (भाषकरूप में रहता है।) १३७५. अभासए णं?
गोयमा ! अभासए तिविहे पण्णत्ते । तं जहा- अणाईए वा अपजवसिए १ अणाईए वा सपज्जवसिए २ सादीए वा सपजवसिए ३।तत्थ णंजे से सादीए सपजवसिए से जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं वणप्फइकालो । दारं १५॥
[१३७५ प्र.] भगवन् ! अभाषक जीव अभाषकरूप में कितने काल तक रहता है ?, _[१३७५ उ.] गौतम ! अभाषक तीन प्रकार के कहे गये हैं- (१) अनादि-अपर्यवसित, (२) अनादिसपर्यवसित और (३) सादि-सपर्यवसित। उनमें से जो सादि-सपर्यवसित हैं, वे जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट वनस्पतिकालपर्यन्त (अभाषकरूप में रहते हैं)।
- पन्द्रहवाँ द्वार ॥१५॥ विवेचन-पन्द्रहवाँ भाषकद्वार - प्रस्तुत दो सूत्रों (सू. १३७४-१३७५) में भाषक और अभाषक जीव के स्वपर्याय में अवस्थान का कालमान प्रतिपादित किया गया है।
भाषक का कालमान- यहाँ भाषक का अवस्थानकाल निरन्तर जघन्य एक समय तक और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त तक जो बताया गया है वह, वचनयोगी की अपेक्षा से समझना चाहिए ।
१. दण्डे प्रथमे समये कपाटमथ चोत्तरे तथा समये ।
मन्थानमस्थ तृतीय लोकव्यापी चतुर्थे तु ॥१॥ संहरति पंचमे त्वन्तराणि मन्थानमथ तथा षष्ठे । सप्तमके तु कपाटं संहरति तोऽष्टमे दण्डम् ॥ २॥
औदारिकप्रयोक्ता प्रथमाष्टमसमयोरसाविष्टः । मिश्रौदारिकयोक्ता सप्तम-षष्ठ-द्वितीयेषु ॥३॥ कार्मणशरीरयोगी चतुर्थके पंचमे तृतीये च ॥
समयत्रयेऽपि तस्मिन् भवत्यनाहारको नियमात् ॥४॥ २. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक ३९४
-प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक ३९३