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अठारहवाँकायस्थितिपद]
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[१२६० प्र.] भगवन् ! जीव कितने काल तक जीव (जीवपर्याय में) रहता है ? [१२६० उ.] गौतम ! (वह) सदा काल रहता है। प्रथम द्वार ॥१॥ १२६१. णेरइए णं भंते ! नेरइए त्ति कालओ केवचिरं होइ ? गोयमा ! जहण्णेणं दस वाससहस्साइं, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई । [१२६१ प्र.] भगवन् ! नारक नारकत्वरूप (नारकपर्याय) में कितने काल तक रहता है ?
[१२६१ उ.] गौतम ! (नारक) जघन्य दस हजार वर्ष तक, उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम तक (नारकपर्याय से युक्त रहता है।)
१२६२.[१]तिरिक्खजोणिए णं भंते ! तिरिक्खजोणिए त्ति कालओ केवचिरं होइ ?
गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं अणंत कालं, अणंताओ उस्सप्पिणी-ओसप्पिणीओ कालओ, खेत्तओ अणंता लोगा, असंखेजा पोग्गलपरियट्ठा, ते णं पोग्गलपरियट्ठा आवलिया असंखेजतिभागो ।
[१२६२-१ प्र.] भगवन् ! तिर्यञ्चयोनिक कितने काल तक तिर्यग्योनिकत्व रूप में रहता है ?
[१२६२-१ उ.] गौतम ! (तिर्यञ्च) जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अनन्तकाल तक तिर्यञ्चरूप में रहता है। कालतः अनन्त उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी काल तक, क्षेत्रतः अनन्त लोक, असंख्यात पुद्गलपरावर्त्तनों तक (तिर्यञ्च तिर्यञ्च, ही बना रहता है।) वे पुद्गलपरावर्तन आवलिका के असंख्यातवे भाग (जितने समझने चाहिए।)
[२] तिरिक्खजोणिणी णं भंते ! तिरिक्खजोणिणीति कालओ केवचिरं होइ ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोहुमुत्तं, उक्कोसेणं तिण्णि पलिओवमाइं पुव्वकोडिपुहुत्तअब्भहियाई। [१२६२-२ प्र.] भगवन् ! तिर्यञ्चनी कितने काल तक तिर्यञ्चनी रूप में रहती हैं ?
[१२६२-२ उ.] गौतम ! (वह) जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्टतः पृथक्त्वकोटि पूर्व अधिक तीन पल्योपम तक (तिर्यञ्चनी रहती है।)
१२६३.[१] एवं मणूसे वि। [१२६३-१] मनुष्य की कायस्थिति के विषय में भी (इसी प्रकार समझना चाहिए।) [२] मणूसी वि एवं चेव । [१२६३-२] इसी प्रकार मानुषी (नारी) की कायस्थिति के विषय में (समझना चाहिए।) १२६४.[१] देवे णं भंते ! देवे त्ति कालओ केवचिरं होइ ?