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[प्रज्ञापनासूत्र
अन्तिम समय में सिर्फ निसर्ग होता है। भाषापुद्गलों का ग्रहण और निसर्ग, ये दोनों परस्पर विरोधी कार्य एक समय में कैसे हो सकते हैं? इस शंका का समाधान यह है कि यद्यपि जैनसिद्धान्तानुसार एक समय में दो उपयोग सम्भव नहीं हैं। किन्तु एक समय में क्रियाएँ तो अनेक हो सकती हैं, उनके होने में कोई विरोध भी नहीं। एक ही समय में एक नर्तकी भ्रमणादि क्रिया करती हुई, हाथों-पैरों आदि से विविध प्रकार कि क्रियाएँ करती है, यह प्रत्यक्ष देखा जाता है। सभी वस्तुओं का एक ही समय में उत्पाद और व्यय देखा जाता है, इसी प्रकार भाषाद्रव्यों के ग्रहण और निसर्ग के परस्पर विरोधी प्रयत्न भी एक ही समय में हो सकते हैं। इसलिए कहा गया है कि भाषाद्रव्यों को जीव बिना व्यवधान के निरन्तर ग्रहण करता रहे तो जघन्य दो समय क और उत्कृष्ट असंख्यात समयों तक निरंतर ग्रहण करता है। कोई असंख्यात समयों तक एक ही ग्रहण न समझ ले, इस भ्रान्ति के निवारणार्थ 'अनुसमय' शब्द का प्रयोग किया गया है, जिसका अर्थ है - 'एक समय के पश्चात्' । कोई व्यक्ति बीच में व्यवधान होने पर भी 'अनुसमय' समझ सकता है, इस भ्रमनिवारण के लिए 'अविरहित' शब्द प्रयुक्त किया है। इस प्रकार प्रथम समय में ग्रहण ही होता है, निसर्ग नहीं: क्योंकि बिना ग्रहण के निसर्ग सम्भव नहीं। और अन्तिम में भाषा का अभिप्राय उपरत हो जाने से ग्रहण नहीं होता, केवल निसर्ग ही होता है। शेष (बीच के) दूसरे, तीसरे आदि समयों में ग्रहण-निसर्ग दोनों साथ-साथ होते हैं। किन्तु पूर्व समय में गृहीत पुद्गल उसके पश्चात् के उत्तर समय में ही छोड़े जाते हैं। ऐसा नहीं होता कि जिन पुद्गलों को जिस समय में ग्रहण किया, उसी समय में निसर्ग भी हो जाए।
(१७) भाषा के रूप में गृहीत द्रव्यों को जीव सान्तर निकालता है, निरन्तर नहीं, क्योंकि जिस समय में जिन भाषाद्रव्यों को जीव ग्रहण करता है, उसी समय में उन द्रव्यों को नहीं निकालता अर्थात् प्रथम समय में गृहीत भाषाद्रव्यों को प्रथम समय में नहीं, किन्तु दूसरे समय में और दूसरे समय में गृहीत द्रव्यों को तीसरे समय में निकालता है, इत्यादि। निष्कर्ष यह है कि पूर्व में गृहीत द्रव्यों को अगले-अगले समय में निकालता है। पहले ग्रहण होने पर ही निसर्ग का होना सम्भव है, अगृहीत का नहीं। इसीलिए कहा गया है कि निसर्ग सान्तर होता है। ग्रहण की अपेक्षा से ही निसर्ग को सान्तर कहा गया है। गृहीत द्रव्य का अनन्तर अर्थात् अगले समय में नियम से निसर्ग होता है। इस दृष्टि से निरन्तर ग्रहण और निसर्ग का काल जघन्य दो समय और उत्कृष्ट असंख्यात समय के अन्तर्मुहूर्त तक का है। भेद-अभेद-रूप में भाषाद्रव्यों के निःसरण तथा ग्रहणनिःसरण सम्बन्धी प्ररूपणा
८८०. जीवे णं भंते ! जाइं दव्वाइं भासत्ताए गहियाइं णिसिरति ताई किं भिण्णाई णिसिरति ? १. गहणनिसग्गपयत्ता परोप्परविरोहिणो कहं समये ? समय दो उवओगा, न होज्ज, किरियाण को दोसो ?
-भाष्यकार
२. (क) प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति., पत्रांक २६२ से २६६ तक
(ख) प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनी टीका भा. ३, पृ. ३४८ से ३७९ तक।