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ग्यारहवाँ भाषापद]
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. (१३) भावतः स्पर्श वाले जिन द्रव्यों को भाषारूप में परिणत करने हेतु जीव ग्रहण करता है, वे भाषाद्रव्य ग्रहणद्रव्यापेक्षया एकस्पर्शी नहीं होते, क्योकि एक परमाणु में दो स्पर्श अवश्य होते है। अत: वे द्रव्य द्विस्पर्शी, त्रिस्पर्शी या चतु:स्पर्शी होते है। किन्तु पंचस्पर्शी से लेकर अष्टस्पर्शी तक नहीं होते। सर्वग्रहण की अपेक्षा से नियमतः शीत, उष्ण, स्निग्ध और रूक्ष चतु:स्पर्शी भाषाद्रव्यों को ग्रहण करता है।
(१४) शीतस्पर्श वाले जिन भाषाद्रव्यों को भाषारूप में परिणत करने हेतु जीव ग्रहण करता है, वे एकगुण शीतस्पर्श वाले यावत् अनन्तगुण शीतस्पर्श वाले होते हैं। इसी प्रकार उष्ण, स्निग्ध और रूक्ष स्पर्श वाले भाषा द्रव्यों के विषय में समझना चाहिए।
(१५) एकगुण कृष्णवर्ण से लेकर अनन्तगुण रूक्षस्पर्श तक के जिन द्रव्यों को जीव भाषा के रूप परिणत करने के लिए ग्रहण करता है, वे द्रव्य आत्मप्रदेशों के साथ स्पृष्ट होते है, अस्पृष्ट नहीं तथा वह अवगाढ द्रव्यों (जिन आकाशप्रदेशों में जीव के प्रदेश हैं, उन्हीं आकाशप्रदेशों में अवस्थित भाषाद्रव्यों) को ग्रहण करता है, अनवगाढ द्रव्यों को नहीं: विशेषतः अनन्तरावगाढ (व्यवधानरहित) द्रव्यों को ही ग्रहण करता है, परम्परावगाढ (व्यवहितरूप से अवस्थित) द्रव्यों को नहीं तथा अनन्तरावगाढ जिन द्रव्यों को जीव ग्रहण करता है, वे अणु (थोड़े प्रदेशों वाले स्कन्ध) भी होते हैं और बादर (बहुत प्रदेशों से उपचित) भी होते हैं। फिर जितने क्षेत्र में जीव के ग्रहणयोग्य भाषाद्रव्य अवस्थित हैं, उतने ही क्षेत्र में जीव उन अणुरूप द्रव्यों को ऊर्ध्वदिशा, अधोदिशा और तिर्यदिशा से भी ग्रहण करता है तथा उन्हें आदि (प्रथम समय) में भी ग्रहण करता है, मध्य (द्वितीय आदि समयों) में भी ग्रहण करता है और अन्त (ग्रहण के उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्तप्रमाणकाल रूप में अन्तिम समय) में भी ग्रहण करता है। इस प्रकार के वे भाषाद्रव्य स्वविषय (स्वगोचर अर्थात् - स्पृष्ट, अवगाढ और अनन्तरावगाढरूप) होते हैं, अविषय (स्व के अगोचर अर्थात् - स्पृष्ट, अवगाढ और अनन्तरावगाढ से भिन्न रूप) नहीं होते तथा उन द्रव्यों को भी जीव आनुपूर्वी से (अनुक्रम से - ग्रहण की अपेक्षा सामीप्य के अनुसार) ग्रहण करता है, अनानुपूर्वी से (आसन्नता का उल्लंघन करके) नहीं एवं नियम से छह दिशाओं से आए हुए भाषाद्रव्यों को ग्रहण करता हैं, क्योंकि नियमतः त्रसनाड़ी में अवस्थित भाषक त्रसजीव छहों दिशाओं के द्रव्यों का ग्रहण करता है।
(१६) जीव जिन द्रव्यों को भाषा के रूप में ग्रहण करता है, उन्हें सान्तर (बीच में कुछ समय का व्यवधान डाल कर अथवा रुक-रुककर) भी ग्रहण करता है और निरन्तर (लगातार-बीच-बीच में व्यवधान डाले बिना) भी ग्रहण करता है। अगर जीव भाषाद्रव्यों को सान्तर ग्रहण करे तो जघन्य एक समय का और उत्कृष्ट असंख्यात समयों का अन्तर समझना चाहिए। जैसे - कोई वक्ता प्रथम समय में भाषा के जिन पुद्गलों को ग्रहण करता है, दूसरे समय में उनको निकालता तथा दूसर समय में गृहीत पुद्गलों को तीसरे समय में निकालता है। इस प्रकार प्रथम समय में सिर्फ ग्रहण होता है, बीच के समयों में ग्रहण और निसर्ग, दोनों होते हैं,
१. कारणमेव तदन्त्यं सूक्ष्मो नित्यश्च भवति परमाणुः । एकरसगन्धवर्णो द्विस्पर्शः कार्यलिंगश्च ॥