SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 109
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ८८] । प्रज्ञापनासूत्र क्रमशः इस प्रकार है - (१) जीव स्थित (स्थिर, हलन-चलन से रहित) द्रव्यों को ग्रहण करता है, अस्थिर (गमनक्रियायुक्त) द्रव्यों को नहीं। (२) वह स्थित द्रव्यों को द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से ग्रहण करता है। (३) द्रव्य से, एकप्रदेशी (एक परमाणु) से लेकर असंख्यातप्रदेशी भाषाद्रव्यों को ग्रहण नहीं करता, क्योंकि वे स्वभावतः अग्राह्य होते है, किन्तु अनन्तप्रदेशी द्रव्यों को ही ग्रहण करता है, क्योंकि अनन्त परमाणुओं से बना हुआ स्कन्ध ही जीव द्वारा ग्राह्य होता है। (४) क्षेत्र से, भाषा रूप में परिणमन करने के लिए ग्राह्य भाषाद्रव्य आकाश के एक प्रदेश से लेकर संख्यात प्रदेशों में अवगाह वाले नहीं होते, किन्तु असंख्यात प्रदेशों में अवगाढ होते हैं। (५) काल से, वह एक समय की स्थिति वाले भाषाद्रव्यों से लेकर असंख्यात समय की स्थिति वाले भाषाद्रव्यों तक को ग्रहण करता है, क्योंकि पुद्गलों (अनन्तप्रदेशी स्कन्ध) की अवस्थिति (हलन-चलन से रहितता) जघन्य एक समय तक और उत्कृष्ट असंख्यातसमय तक रहती है। (६) भाव से, भाषा रूप में ग्राह्य द्रव्य वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श वाले होते हैं। (७) भावतः वर्ण वाले जिन भाषाद्रव्यों को ग्रहण करता है, वे ग्रहणयोग्य पृथक्-पृथक् द्रव्यापेक्षया कोई एक, कोई दो, यावत् कोई पांच वर्णो से युक्त होते हैं, किन्तु सर्वग्रहणापेक्षया अर्थात् ग्रहण किए हुए समस्त द्रव्यों के समुदाय की अपेक्षा से वे नियमतः पांच वर्षों से युक्त होते हैं। ___ (८) वर्ण की अपेक्षा से भाषारूप में परिणत करने हेतु एकगुण कृष्ण से लेकर अनन्तगुण कृष्ण भाषाद्रव्यों को ग्रहण करता है। इसी प्रकार नील, रक्त, पीत, शुक्ल वर्णों के विषय में समझ लेना चाहिए। (९) ग्रहणयोग्यद्रव्यापेक्षया एक गन्ध वाले एवं दो गन्ध वाले द्रव्यों को भी ग्रहण करता है, किन्तु सर्वग्रहणापेक्षया दो गन्धवाले द्रव्यों को ही ग्रहण करता है। (१०) एक गुण सुगन्ध वाले से लेकर यावत् अनन्तगुण सुगन्ध वाले भाषाद्रव्यों को ग्रहण करता है, तथैव एकगुण दुर्गन्ध से लेकर अनन्तगुण दुर्गन्ध तक के भाषापुद्गलों को ग्रहण करता है। (११) ग्रहणयोग्य द्रव्यों की अपेक्षा से एक रस वाले भाषाद्रव्यों को भी ग्रहण करता है, किन्तु सर्वग्रहणापेक्षया नियमतः पांच रसों वाले भाषाद्रव्यों को ग्रहण करता है। - (१२) भाषा के रूप में परिणत करने हेतु एकगुण तिक्तरस वाले से लेकर अनन्तगुण तिक्तरस वाले भाषाद्रव्यों तक को ग्रहण करता है। इसी प्रकार कटु, कषाय, अम्ल और मधुर रसों वाले भाषाद्रव्यों के विषय में समझना चाहिए।
SR No.003457
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages545
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy