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ग्यारहवाँ भाषापद]
[८७ गोयमा ! संतरं पि गेण्हति निरंतर पि गेण्हति।संतरं गिण्हमाणे जहण्णेणं एगं समयं, उक्कोसेणं असंखेजसमए अंतरं कट्ट गेण्हति। निरंतर गिण्हमाणे जहण्णेणं दो समए, उक्कोसेणं असंखेजसमए अणुसमयं अविरहियं निरंतरं गेण्हति।
[८७८ प्र.] भगवन् ! जिन द्रव्यों को जीव भाषा के रूप में ग्रहण करता है, क्या (वह) उन्हें सान्तर (बीच-बीच में कुछ समय का व्यवधान डाल कर या बीच-बीच में रुक कर) ग्रहण करता है या निरन्तर (लगातार) ग्रहण करता रहता है ?
[८७८ उ.] गौतम ! वह उन द्रव्यों को सान्तर भी ग्रहण करता है और निरन्तर भी ग्रहण करता है। सान्तर ग्रहण करता हुआ (जीव) जघन्यतः एक समय का तथा उत्कृष्टत: असंख्यात समय का अन्तर करके ग्रहण करता है और निरन्तर ग्रहण करता हुआ जघन्य दो समय तक और उत्कृष्ट असंख्यात समय तक प्रतिसमय बिना विरह (विराम) के लगातार ग्रहण करता है।
८७९. जीवे णं भंते ! जाइं दव्वाइं भासत्ताए गहियाई णिसिरति ताई किं संतरं णिसिरति णिरंतरं णिसिरति ? . गोयमा ! संतरं णिसिरति, णो णिरंतरं णिसिरति । संतरं णिसिरमाणे एगेणं समएणं गेण्हइ
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| एएणं गहण-णिसिरणोवाएणं जहण्णेणं दुसमइयं उक्कोसेणं असंखेजसमइयं अंतोमुहुत्तियं गहण-णिसिरणोवायं (णिसिरणं) करेति ।
[८७९ प्र.] भगवन् ! जिन द्रव्यों को जीव भाषा के रूप में ग्रहण करके निकालता है (त्यागता है), क्या वह उन्हें सान्तर निकालता है या निरन्तर निकालता है ? ।
[८७९. उ.] गौतम ! (वह उन्हें) सान्तर निकालता है, निरन्तर नहीं निकालता (त्यागता)। सान्तर निकालता हुआ जीव एक समय में (उन भाषायोग्य द्रव्यों को) ग्रहण करता है और एक समय से निकालता (त्यागता) है। इस ग्रहण और नि:सरण के उपाय से जघन्य दो समय के और उत्कृष्ट असंख्यात समय के अन्तर्मुहूर्त तक ग्रहण और निःसरण करता है।
विवेचन - जीव द्वारा ग्रहणयोग्य भाषाद्रव्यों के विभिन्न रूप - प्रस्तुत तीन सूत्रों (सू. ८७७ से ८७९ तक) में जीव ग्राह्य स्थित भाषाद्रव्यों को द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से किन-किन रूपों में, कैसे-कैसे ग्रहण करता है, इसकी सांगोपांग चर्चा की गई है। ..
मुखादि से बाहर निकालने से पूर्व ग्राह्य भाषाद्रव्यों के विभिन्न रूप - यह तो पहले बताया जा चुका है कि जीव भाषा निकालने से पूर्व भाषा के रूप में परिणत करने के लिए भाषाद्रव्यों को अर्थात् भाषावर्गणा के पुद्गलों को ग्रहण करता है। इन तीन सूत्रों में इन्हीं ग्राह्य भाषाद्रव्यों की चर्चा का निष्कर्ष