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[ २ ] एवं नेरहयाणं जाव वेमाणियाणं । नवरं जस्स जतिंदिया अस्थि ॥२॥
[१००९ - २] इसी प्रकार नैरयिकों से लेकर वैमानिकों तक निर्वर्तना-विषयक प्ररूपणा करनी चाहिए। विशेष यह कि जिसके जितनी इन्द्रियाँ होती हैं, ( उसकी उतनी ही इन्द्रियनिर्वर्तना कहनी चाहिए ।) ॥२॥
प्रज्ञापनासूत्र
१०१०. [१] सोइंदियणिव्वत्तणा णं भंते ! कतिसमइया पन्नत्ता ?
गोयमा ! असंखिज्जसमइया अंतो मुहुत्तिया पन्नत्ता । एवं जाव फासिंदियनिव्वत्तणा । [१०१०-१ प्र.] भगवन् ! श्रोत्रेन्द्रियनिर्वर्त्तना कितने समय की कही गई है ?
[१०१०-१ उ.] गौतम ! (वह) असंख्यात समयों के अन्तर्मुहूर्त की कही है। इसी प्रकार स्पर्शनेन्द्रियनिर्वर्त्तना- काल तक कहना चाहिए ।
[२] एवं नेरइयाणं जाव वेमाणियाणं ॥३॥
[१०१०-२] इसी प्रकार नैरयिकों से लेकर यावत् वैमानिकों की इन्द्रियनिर्वर्तना के काल के विषय में कहना चाहिए ।
विवेचन - द्वितीय-तृतीय निर्वर्तनाद्वार एवं निर्वर्तनासमयद्वार - प्रस्तुत दो सूत्रों में से प्रथम सूत्र में पांच प्रकार की निर्वर्तना और द्वितीय सूत्र में प्रत्येक इन्द्रिय की निर्वर्तना के समयों की प्ररूपणा की गई है। निर्वर्त्तना का अर्थ - बाह्याभ्यन्तररूप निर्वृत्ति - आकार की रचना ।
चतुर्थ-पंचम-पष्ठ लब्धिउपयोगाद्धा, अल्पबहुत्व उपयोग काल का द्वार
१०११. [१] कतिविहा णं भंते ! इंदियलद्धी पण्णत्ता ?
गोमा ! पंचविहा इंदियलद्धी पण्णत्ता । तं जहा- सोइंदियलद्धी जाव फासिंदियलद्धी ।
[१०११-१ प्र.] भगवन् ! इन्द्रियलब्धि कितने प्रकार की कही गई है ?
[१०११-१ उ.] गौतम ! इन्द्रियलब्धि पांच प्रकार की कही है, वह इस प्रकार - श्रोत्रेन्द्रियलब्धि यावत् स्पर्शेन्द्रियलब्धि ।
[ २ ] एवं णेरइयाणं जाव वेमाणियाणं । नवरं जस्स जति इंदिया अत्थि तस्स तावतिया लगी भाणियव्वा ॥ ४ ॥
[१०११-२] इसी प्रकार नैरयिकों से लेकर वैमानिकों तक इन्द्रियलब्धि की प्ररूपणा करनी चाहिए। विशेष यह कि जिसके जितनी इन्द्रियाँ हों, उसके उतनी ही इन्द्रियलब्धि कहनी चाहिए ।
प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्रांक ३०९
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